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कभी प्रधानमंत्री रोते हैं, कभी उपराष्ट्रपति रोते हैं, लेकिन लोकतंत्र की धज्जियां फिर भी उड़ती रहती हैं। मतलब जिंदा जमीर की जरूरत

संसद का मानसून सत्र हंगामेदार होगा, ये अनुमान तो पहले से था। लेकिन देश इस बात का अनुमान नहीं लगा पाया कि सदन में मुद्दों से बचकर भागने वाली सरकार सदन की मर्यादा भी बचा नहीं पाएगी

संसद का मानसून सत्र हंगामेदार होगा, ये अनुमान तो पहले से था। लेकिन देश इस बात का अनुमान नहीं लगा पाया कि सदन में मुद्दों से बचकर भागने वाली सरकार सदन की मर्यादा भी बचा नहीं पाएगी। संसद के दोनों सदनों में अक्सर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच मतभेदों के कारण हंगामे होते रहे हैं। कई बार कागज फाड़ने, और अध्यक्ष की आसंदी तक आकर सदस्यों की नारेबाजी के दृश्य भी देश देख चुका है। सदन के भीतर नोट लहराने की शर्मनाक घटना भी हो चुकी है। मगर बुधवार को जिस तरह सांसदों को रोकने के लिए मार्शल बुलाए गए, और महिला सांसदों के साथ धक्का-मुक्की की खबरें हैं, उससे देश में लोकतंत्र का घोर अपमान हुआ है। सरकार की कोई सफाई, कोई दलील, इस अपमान को कम नहीं कर सकती। ये देखकर और दुख हो रहा है कि मोदी सरकार इस अत्यंत अशोभनीय घटना में भी अपने लिए राजनैतिक लाभ तलाशने की कोशिश कर रही है।

सरकार के सूचनातंत्र (निजी औऱ सरकारी चैनल) भले इस बात को न दिखाएं कि पूरे मानसून सत्र के दौरान सरकार ने पेगासस जासूसी कांड, कृषि कानून और महंगाई के मुद्दे पर चर्चा नहीं कराई और सदन में रोजाना हुए हंगामों का सारा ठीकरा विपक्ष पर फोड़ दें। लेकिन देश अभी अंधेपन और बहरेपन का इतना शिकार भी नहीं हुआ है कि उसे कुछ दिखाई-सुनाई न दे। जनता ने देखा है कि किस तरह पांच-छह मिनटों का वक्त लेकर सरकार ने 20 विधेयक पारित करा दिए और जब विपक्ष ने सरकार से जनता से जुड़े मुद्दों पर जवाब चाहा, तो सरकार ने किनारा कर लिया। इसके बाद विपक्ष के पास हंगामा करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था। लेकिन सिर्फ हंगामा करना ही विपक्ष का मकसद नहीं था, सूरत बदलने का भी उसका इरादा है। इसलिए जिन मुद्दों पर सदन में चर्चा नहीं हो पाई, उन्हें सड़क पर लाया गया। विरोध प्रदर्शन कर सरकार से जवाब मांगे गए। लेकिन मोदी सरकार किस कदर मगरूर है, और लोकतंत्र में उसकी कितनी आस्था बची है, ये पर्दा अब उठ चुका है।

बुधवार को राज्यसभा में जब जनरल इंश्योरेंस बिजनेस (राष्ट्रीयकरण) संशोधन विधयेक, 2021 पास किया जा रहा था। उस दौरान विपक्षी दलों के सांसद नारेबाजी कर रहे थे। कुछ महिला सांसदों का आरोप है कि उनके साथ पुरुष मार्शलों ने बदसलूकी की। इस घटना पर बजाय खेद व्यक्त करने के सरकार ने अपने सात मंत्रियों को अपना पक्ष रखने के लिए सामने कर दिया। पूरे मानसून सत्र के दौरान जो सरकार जवाबदेही से भागती रही, उसके सात-सात मंत्री एक साथ प्रेस कांफ्रेंस कर विपक्ष को कोस रहे हैं, उसे लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं। गुरुवार को अनुराग ठाकुर, प्रहलाद जोशी, मुख्तार अब्बास नकवी, पीयूष गोयल, अर्जुन राम मेघवाल, भूपेंद्र यादव और वी. मुरलीधरन इन सातों मंत्रियों ने प्रेस कांफ्रेंस की, जिसमें संसद में हुए हंगामे के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया। इन मंत्रियों का कहना है कि विपक्षी सांसदों में अगर थोड़ी भी समझ है तो उन्हें देश से माफी मांगनी चाहिए।

सरकार की यह अतिआक्रामकता और अतिरक्षात्मक मुद्रा बहुत कुछ बयां कर रही है। वैसे सरकार से ये सवाल किया जाना चाहिए कि विपक्ष के माफी मांगने से क्या उन सवालों के जवाब भी देश को मिल जाएंगे, जिन्हें विपक्ष सदन में उठाना चाहता था। इससे पहले मंगलवार को सदन में हुए हंगामे पर राज्यसभा सभापति एम वैंकेया नायडू ने रूंधे गले से अपना दुख प्रकट किया था कि वे रात भर सो नहीं सके, क्योंकि लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर की पवित्रता भंग की गई। कभी प्रधानमंत्री रोते हैं, कभी उपराष्ट्रपति रोते हैं, लेकिन लोकतंत्र की धज्जियां फिर भी उड़ती रहती हैं। मतलब साफ है कि रोना छोड़कर जिम्मेदारी पूरी करने पर ध्यान देना चाहिए। अगर ऐसा होगा तो शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के साथ-साथ जनता को भी कभी रोने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन सरकार का ध्यान जनता के आंसुओं पर जा ही नहीं रहा है। हालांकि विपक्ष अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह निभा रहा है।

गुरुवार को राहुल गांधी समेत कई विपक्षी सांसदों ने विजय चौक से संसद भवन तक पैदल मार्च निकालकर राज्यसभा में घटी घटना की निंदा की। इस दौरान राहुल गांधी ने कहा कि देश में दलितों, गरीबों, किसानों, मजदूरों में आपको धीरे-धीरे एक आवाज सुनाई देगी। ये आवाज धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी और एक दिन तूफान बन जाएगी। राहुल गांधी की इस हुंकार में देश में बदलती राजनीति की आहट सुनाई दे रही है। बहुत से लोगों को इस बात की शिकायत थी कि राहुल गांधी जमीन पर दिखाई नहीं देते, सिर्फ ट्विटर पर सक्रिय रहते हैं। राहुल गांधी समेत कई कांग्रेसियों के ट्विटर अकांउट इस वक्त बंद हैं और उसके प्रत्यक्ष कारण जो भी हों, इसके पीछे बदले की राजनीति है, यह जाहिर है। लेकिन ट्विटर से पहले भी विपक्ष जिंदा था और लोकतंत्र को जिंदा रखने का दायित्व निभाता था। राहुल गांधी ने पिछले दिनों बार-बार सड़क पर उतर कर इस बात को साबित किया है कि सरकार को आईना दिखाने के लिए किसी सोशल मीडिया प्लेटफार्म का मोहताज होने की जरूरत नहीं है। इस काम के लिए बस जमीर का जिंदा होना ही काफी है।

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