क्यों डरती है मोदी सरकार

आप चाहें तो इसे बहुमत की ताकत कह सकते हैं, आप चाहें तो इसमें लोकतंत्र का मखौल उड़ता देख सकते हैं।
पिछले एक साल से जिन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हजारों किसान सड़क पर आंदोलन कर रहे थे, उन तीनों कानूनों को चंद मिनटों में मोदी सरकार ने संसद में रद्द करवा दिया। आप चाहें तो इसे बहुमत की ताकत कह सकते हैं, आप चाहें तो इसमें लोकतंत्र का मखौल उड़ता देख सकते हैं। ये सही है कि किसान लगातार इन कानूनों को रद्द करने की ही मांग पर अड़े थे, उन्हें कानूनों में न संशोधन मंजूर था, न कुछ समय का स्थगन।
किसान इन कानूनों को चाहते ही नहीं थे, इसलिए उनके आंदोलन का यह उद्देश्य साफ था कि जब तक कानून वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं। और अब मोदी सरकार यही उम्मीद कर रही है कि हमने कानून वापस ले लिया है, तो अब किसानों को भी घर लौट जाना चाहिए। हालांकि किसानों के आंदोलन में कानून वापसी के साथ और कई दूसरी मांगें भी थीं, जिनकी सरकार उपेक्षा कर रही है। इसलिए अपनी उम्मीदों के पूरे न होने का दोष किसानों पर नहीं मढ़ा जा सकता।
यह सभी को ज्ञात है कि कृषि विधेयकों को किस तरह हड़बड़ी में सरकार ने संसद से पारित करवा कर कानून बनवाया था। इसके लिए न कृषि अर्थशास्त्रियों से सरकार ने चर्चा की, न किसान संगठनों से रायशुमारी की।
किसानों ने कभी ऐसे कानूनों की मांग नहीं की थी, लेकिन उन्हें जबरन थोपकर सरकार यही साबित करने पर तुली थी कि इससे किसानों का भला होगा। हालांकि इस दौरान उद्योगपतियों का कितना भला होता, यह सबको पता चल गया था। किसान सड़क पर मोर्चा खोलकर बैठे रहे, इस दौरान दिल्ली में कई बरसों बाद कड़कड़ाती सर्दी पड़ी, सर्दी के साथ भारी बारिश और हवाओं की मार खुले आसमान के नीचे रह रहे किसानों ने खाई, फिर तपती गर्मी, लू, कोरोना और प्रदूषण सारी मुश्किलें किसानों ने सहीं। लेकिन सरकार ने उनसे बातचीत के रास्ते बंद रखे।
बल्कि मंत्रियों की टोली देश भर में घूम कर प्रेस कांफ्रेस कर कृषि कानूनों के फायदे गिनाते रही। 70 सालों में कई तरह के मिजाज़ वाली सरकारें देश ने देखी हैं, लेकिन ऐसी अड़ियल और संवेदनहीन सरकार पहले कभी देश में नहीं रही। अब भी कृषि कानून वापस लेने के लिए प्रधानमंत्री ने एक तरह से किसानों पर तंज ही कसा कि वे दीए के प्रकाश जैसा सत्य नहीं समझ पाए। संसद में कृषि कानून निरसन विधेयक पेश करने से पहले कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने सांसदों को जो नोट भेजा, उसमें लिखा है कि इन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ ‘किसानों का केवल एक छोटा सा समूह ही विरोध कर रहा है, समावेशी विकास के लिए सभी को साथ लेकर चलना समय की मांग है।
इस नोट में एक बार फिर कृषि कानूनों से किसानों को होने वाले संभावित फायदे गिनाए हैं। साथ ही कई बार की बातचीत के बावजूद सहमति नहीं बनने का सारा दोष किसान संगठनों के सिर पर थोपा गया है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के इस रवैये से जाहिर है कि उन्हें अब भी सारी कमी किसानों में ही नजर आ रही है और अपने मनमाने कानूनों को सही ठहराने की प्रबल इच्छा को वे महज चुनावों के चलते दबा रहे हैं।
ऐसे में यह संदेह होना स्वाभाविक है कि यही कानून किसी और नाम और शक्ल में फिर से देश पर थोपे जा सकते हैं। जैसे कई बार तूफान शांत होने का इंतजार मल्लाह करते हैं और फिर मछली पकड़ने के लिए अपना जाल फेंकते हैं, कुछ वैसा ही हाल चुनावों के बाद देश में देखने मिल सकता है। इसलिए अभी किसान अपनी बाकी मांगों के साथ आंदोलन जारी रखे हुए हैं, तो यह लोकतंत्र के हित में ही है।
सोमवार को संसद में कृषि कानून निरस्त कराने से पहले विपक्ष ने व्यापक चर्चा की मांग रखी थी। क्योंकि कानून वापसी के साथ-साथ लखीमपुर खीरी घटना और बिजली बिल सहित आंदोलन के दौरान हुई कई घटनाओं पर चर्चा विपक्ष चाहता था। जबकि सरकार जानती थी कि अगर बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी। इसलिए उसने जिस तरह अपने बहुमत से कानून पारित करवाए थे, उसी बहुमत के घमंड में उन्हें बिना चर्चा के निरस्त भी करवा दिए। एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले ने इसे लोकतंत्र के लिए काला दिन बताया है और ऐसे कई काले दिन पिछले सात सालों में देश ने देखे हैं।
सोमवार को जब कृषि विधि निरसन विधेयक 2021 लोकसभा में पेश हुआ तो इसके फौरन बाद कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने विधेयक पर चर्चा कराने की मांग शुरू कर दी। हालांकि अध्यक्ष ने कहा कि सदन में व्यवस्था नहीं है। सरकार ऐसे ही लचर तर्कों से लोकतंत्र का मजाक बना रही है। अगर विपक्षी दल हंगामा कर रहे हैं तो सरकार को उस हंगामे के कारण को समझकर उसका निवारण करना चाहिए। सदन में चर्चा के लिए माहौल और व्यवस्था दोनों बनाना चाहिए। मगर अभी ऐसा लगता है कि सरकार भी हंगामे की आड़ में चर्चा से भागना चाहती है। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने सही कहा है कि जिस प्रकार से इन कानूनों को रद्द किया है, बिना किसी बातचीत के वो दिखाता है कि सरकार चर्चा से डरती है। उन्होंने ट्वीट कर कहा, ”चर्चा नहीं होने दी- एमएसपी पर, शहीद अन्नदाता के लिए न्याय पर, लखीमपुर मामले में केंद्रीय मंत्री की बख़ार्स्तगी पर उन्होंने कहा, ”जो छीने संसद से चर्चा का अधिकार, फ़ेल है, डरपोक है वो सरकार।”
अब देखना होगा कि अपनी बहादुरी साबित करने के लिए सरकार आगामी दिनों में चर्चा का सामना करती है या फिर जनता से और विपक्ष से भागी-भागी फिरती है।