मुफ्त रेवड़ी, वेलफेयर स्कीम… पर सुझाव के लिए बनी कमेटी, अब फैसला करना संसद का काम: CJI

मुफ्त रेवड़ियों की बहस तो एक ‘जटिल मुद्दा’ बताते हुए चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि यह तय करना जरूरी है कि किसे एक मुफ्त रेवड़ी माना जा सकता है और किसे कल्याणकारी उपाय कहा जा सकता है.
चीफ जस्टिस एनवी रमना- मुफ्त रेवड़ियों की बहस एक ‘जटिल मुद्दा
नई दिल्ली.
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा दिए गए मुफ्त उपहारों के मुद्दे पर विचार करने के लिए एक समिति गठित करने की योजना बनाने के पीछे की मंशा केवल ये थी कि वह संसद को प्रस्तुत किए जा सकने वाले सुझावों को पेश कर सके, जो इस मुद्दे पर बहस कर सके और अगर जरूरी हो तो एक कानून तैयार करे.
इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक भारत के चीफ जस्टिस एनवी रमना ने तीन न्यायाधीशों की पीठ की अध्यक्षता करते हुए कहा कि, ‘मैंने शुरू में सोचा था कि जो लोग अर्थव्यवस्था और लोगों के कल्याण के बारे में चिंतित हैं, वे पूरे मुद्दे पर विचार कर सकते हैं और कुछ सुझाव दे सकते हैं. इसे संसद के सामने रखा जा सकता है, जो बहस कर सकती है और कानून बना सकती है. फिर भी इसका विरोध हो रहा है.’ इस बेंच में जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सीटी रविकुमार भी शामिल हैं. सीजेआई ने कहा कि, ‘आखिरकार, हम यह नहीं कह रहे हैं कि जो भी सुझाव आएं, उन्हें मान लिया जाना चाहिए. लोकतंत्र में संसद को बहस करनी होती है और फैसला लेना होता है. लेकिन उसके लिए कुछ बैकग्राउंड पेपर की जरूरत होती है. इसलिए मैंने इस बहस की शुरुआत की.’
मुफ्त रेवड़ियों की बहस तो एक ‘जटिल मुद्दा’ बताते हुए चीफ जस्टिस रमना ने कहा कि यह तय करना जरूरी है कि किसे एक मुफ्त रेवड़ी माना जा सकता है और किसे कल्याणकारी उपाय कहा जा सकता है. सीजेआई ने कहा कि ‘कुछ राज्य साइकिल देते हैं. यह बताया गया कि इसने लाइफ स्टाइल को बदल दिया है और उन्होंने विभिन्न जगहों पर जाना शुरू कर दिया है और इसने शिक्षा, व्यवसाय में सुधार किया है. सवाल यह है कि किसे रेवड़ी में शामिल किया जा सकता है और क्या वंचितों को आगे बढ़ाने के लिए वास्तव में जरूरी है? ग्रामीण गरीबों के लिए जिनकी आजीविका इसी पर निर्भर करती है, ऐसे उपायों से बहुत फर्क पड़ता है. यही कारण है कि हम यहां बैठकर इन मुद्दों पर बहस नहीं कर सकते. ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर देश के संदर्भ में, लोगों के विभिन्न वर्गों और उनके अनुभवों के हिसाब से गौर करना होगा.’
उन्होंने यह भी कहा कि ‘मुफ्तखोरी को लेकर सभी राजनीतिक दल एक और हैं. इसमें मैं कह सकता हूं, सभी राजनीतिक दल एक तरफ हैं, हर कोई मुफ्त बांटना चाहता है.’ चीफ जस्टिस एनवी रमना की बातों से सहमति जताते हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि यही कारण है कि राज्यों का राजकोषीय घाटा राजकोषीय ‘उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम-2003’ (Fiscal Responsibility and Budget Management Act-2003) के तहत तय की गई 3 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा है.
जबकि केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ‘कोई भी दलितों या समाज के किसी भी वर्ग के उत्थान के लिए सामाजिक उपायों को लागू करने पर किसी भी पार्टी की जिम्मेदारी पर सवाल नहीं उठा सकता है. लेकिन कठिनाई तब पैदा होती है जब कोई पार्टी साड़ी बांटती है और कुछ मुफ्त बिजली देने के लिए कहते हैं.’ मेहता ने कहा कि सवाल यह है कि क्या ऐसी परिस्थितियों में अदालत केवल मूक दर्शक बनी रहेगी? मेहता ने कहा कि ‘अगर कोई पार्टी कहने लगे कि हम टैक्स नहीं लेंगे, क्या ऐसा किया जा सकता है? अगर वोटर से झूठा वादा कर रहे हैं, जिसकी अनुमति वित्तीय हालत नहीं देती है या इस मामले में वित्त पर बोझ पड़ता है, जो कि अर्थव्यवस्था को नष्ट कर देता है, तो क्या इसकी अनुमति होगी? यह एक गंभीर मुद्दा है जिसके विनाशकारी आर्थिक परिणाम हो सकते हैं.’