ब्लॉग

मोदीजी का शाशन मुनाफे कमाने की भूख को पूरा करने विकास के राक्षस के लिए रोज नया शिकार ?

निजी क्षेत्र की मुनाफे कमाने की भूख को पूरा करने के लिए मौजूदा सरकार ने देश की संपत्तियों को थाली में परोस कर कार्पोरेट के आगे रख दिया है

निजी क्षेत्र की मुनाफे कमाने की भूख को पूरा करने के लिए मौजूदा सरकार ने देश की संपत्तियों को थाली में परोस कर कार्पोरेट के आगे रख दिया है। आजादी के बाद बड़ी मेहनत और सूझबूझ के साथ खड़े किए गए सार्वजनिक निकायों का यह कहकर निजीकरण कर दिया गया कि बिजनेस करना सरकार का बिजनेस नहीं है। निजीकरण की रफ्तार देखकर लगता है कि जब तक देश की आखिरी पाई पर चंद कारोबारियों का कब्जा नहीं हो जाएगा, तब तक ये सिलसिला चलता रहेगा। जब सार्वजनिक क्षेत्र के सारे उद्योग निजी घोषित कर दिए जाएंगे, तब देने के लिए कुछ नहीं बचेगा, मगर मुनाफे की भूख फिर भी शांत नहीं हुई तो सरकार क्या परोसेगी। इसलिए अब इसका इंतजाम भी कर लिया गया है। अब देश की प्राकृतिक संपदा को निजी हाथों में सौंपने की तैयारियां की जा रही हैं। जल, जंगल, जमीन का सौदा खुलेआम किया जाए, तो जनविरोधी होने का ठप्पा सरकार पर लग सकता है। इसलिए अब पिछले दरवाजे से लूट का इंतजाम किया गया है।

पिछले दिनों पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2006 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम की जगह वन संरक्षण अधिनियम 2022 को अधिसूचित किया है। इसके तहत जो नियम होंगे वे उद्योगपतियों को बिना वन के निवासियों की सहमति लिए जंगल काटने की अनुमति देते हैं। नए नियम बुनियादी ढांचे और विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि के उपयोग में बदलाव करने और उसे देने की प्रक्रिया को सरल और संक्षिप्त बनाएंगे तथा क्षतिपूरक वनीकरण यानी एक जगह के जंगल काटकर, दूसरी जगह पेड़ उगाने के लिए भूमि की उपलब्धता को आसान बनाएंगे। नए नियमों के तहत जंगल काटने से पहले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वन में रहने वाले अन्य समुदायों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अब राज्य सरकार की होगी, जबकि यह पहले केंद्र सरकार के लिए अनिवार्य थी। पुराने नियमों के तहत वन भूमि को निजी परियोजनाओं के लिए सौंपे जाने की मंजूरी देने से पहले केंद्र सरकार को वनवासी समुदायों की सहमति को सत्यापित करने की जरूरत होती थी। लेकिन अब, पहले जंगल को सौंपने की मंजूरी दी जा सकती है।

क्षतिपूरक वनीकरण के लिए निजी डेवलपर्स से भुगतान भी ले सकते हैं और यह सब राज्य सरकार द्वारा वनवासियों के अधिकारों का निपटान करने और परियोजना के लिए उनकी स्वीकृति सुनिश्चित करने से पहले ही हो जाएगा। नियमों के मुताबिक, किसी परियोजना के लिए अनुपालन रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद केंद्र सरकार वन संरक्षण अधिनियम की धारा 2 के तहत अंतिम मंजूरी दे सकती है। इसके बाद यह राज्य सरकार या केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासन को निर्णय के बारे में बताएगी। तब राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि परियोजना वन अधिकार अधिनियम समेत अन्य सभी अधिनियमों और नियमों के प्रावधानों को पूरा करती है।

गौरतलब है कि यह बदलाव वन अधिकार कानून का सरासर उल्लंघन करता है, जिसके तहत अब तक सरकारों को वनवासियों की पारंपरिक भूमि पर परियोजना की मंजूरी देने से पहले उनकी सहमति लेनी होती थी। वनों पर निजी उद्योगपतियों की नज़रें तो दशकों से बनी हुई हैं। देश की बहुत सी प्राकृतिक संपदा इसी वजह से नष्ट भी हो चुकी है। लेकिन जो बचे-खुचे वन हैं और आदिवासियों के इन वनों पर जो अधिकार हैं, उन्हें अब संरक्षित और सुरक्षित कर लिया जाए, इसी मकसद से वन संरक्षण अधिनियम यूपीए सरकार में बना था। इस कानून में सरकारों के लिए जंगलों में रहने वालों की पारंपरिक जमीन पर किसी भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले, उनसे पहले से विस्तृत जानकारी देना और पूर्णतया मुक्त रजामंदी लेना जरूरी था। 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद भी इस कानून को प्रासंगिक माना गया। वन अधिकार अधिनियम की देख-रेख करने वाले आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने दिसंबर 2015 में सुझाव दिया था कि वन भूमि पर किसी परियोजना के लिए अंतिम मंजूरी जारी करने से पहले वनवासी समुदायों की सहमति को ध्यान में रखा जाना चाहिए। तब मंत्रालय ने तर्क दिया था कि अगर अंतिम मंजूरी देने के बाद ग्राम सभा से संपर्क किया जाता है तो यह ग्राम सभा की भूमिका को अप्रासंगिक बना देगा, क्योंकि मंजूरी तो पहले ही मिल चुकी होगी। लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में विकास और अधिकारों के बीच के संघर्ष में कमजोर का साथ देने का दिखावा भी खत्म कर दिया गया है और खुलकर उद्योगपतियों के लिए थाल सजा दिया गया है।

सरकार के इस फैसले की आलोचना करते हुए राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘मोदी-मित्र सरकार अपनी मित्रता में बेहतरीन! जंगल की जमीन ‘छीनने में सुगमता’ के लिए भाजपा सरकार नए वन संरक्षण नियम-2022 के साथ आई और सप्रंग की वन अधिकार नियम-2006 को कमजोर कर रही है।’ उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस मजबूती के साथ हमारे आदिवासी भाइयों और बहनों की ‘जल-जंगल और जमीन’ बचाने की लड़ाई में खड़ी है।’ इस बारे में पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने एक बयान में कहा, ‘निश्चित तौर पर यह कुछ लोगों द्वारा चुने गए ‘व्यापार सुगमता’ के नाम पर किया गया। लेकिन यह बड़ी आबादी की ‘जीविकोपार्जन सुगमता’ समाप्त करेगा।’ उन्होंने ट्वीट किया, ‘अगर मोदी सरकार द्वारा आदिवासियों के हितों की रक्षा करने और उन्हें प्रोत्साहित करने की वास्तविक मंशा दिखाई गई है तो यह फैसला है, जो करोड़ों आदिवासियों और वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को शक्तिविहीन बनाएगा।’

वन भूमि के अलावा पर्यावरण संरक्षण से संबंधित तीन और कानूनों में भी संशोधन किया है, जो पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1986, जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम-1974 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम-1981 हैं। इन संशोधनों के बाद अब कानून के उल्लंघन पर जेल की सज़ा नहीं होगी, केवल जुर्माना लगेगा। जानकारों का मानना है कि यह ‘प्रदूषण करो और भुगतान भरो’ वाली सोच को बढ़ावा देंगे।

मोदी सरकार के ये फैसले उस वक्त आए हैं, जब छत्तीसगढ़ में हसदेव और मुंबई में आरे के जंगल को बचाने के लिए संघर्ष किया जा रहा है। नदियों और पहाड़ों को बचाने के लिए गुहार लगाई जा रही है। देश में कहीं सूखे का खतरा है, कहीं बाढ़ की तबाही है, कहीं बादल फट रहे हैं, कहीं भू-स्खलन हो रहा है। मगर विकास उस राक्षस की तरह सत्ता के महल में बैठा हुआ है, जो अपनी भूख शांत करने के लिए रोज एक नया शिकार मांग रहा है।

डोनेट करें - जब जनता ऐसी पत्रकारिता का हर मोड़ पर साथ दे. फ़ेक न्यूज़ और ग़लत जानकारियों के खिलाफ़ इस लड़ाई में हमारी मदद करें. नीचे दिए गए बटन पर क्लिक कर क्राइम कैप न्यूज़ को डोनेट करें.
 
Show More

Related Articles

Back to top button