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लोकतंत्र के लिए हमारे देश की दिल्ली उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण फैसला!

अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतंत्र में असहमति के लिए स्थान और विरोध की गुंजाइश के हक में एक महत्वपूर्ण फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय से आया है

अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतंत्र में असहमति के लिए स्थान और विरोध की गुंजाइश के हक में एक महत्वपूर्ण फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय से आया है। मंगलवार 15 जून को दिल्ली उच्च न्यायालय ने छात्र कार्यकर्ताओं देवांगना कालिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत दे दी है।  इन तीनों के खिलाफ पिछले साल उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों को लेकर गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया था। देवांगना और नताशा पिंजड़ा तोड़ आंदोलन की कार्यकर्ता हैं जबकि आसिफ़ जामिया मिल्लिया विवि के छात्र हैं। ज्ञात हो कि पिछले साल 23 फरवरी को उत्तरपूर्वी दिल्ली में दंगे भड़क गए थे, जो तीन दिन तक चले थे। इस दौरान 53 लोगों की मौत हुई थी और 581 लोग घायल हो गए थे, जबकि कई घर, दुकानें, व्यापारिक प्रतिष्ठान, वाहन आदि जला दिए गए थे।

मार्च में कोरोना की वजह से देशभर में लॉकडाउन लग गया और तभी पुलिस ने उत्तरपूर्व दिल्ली में हिंसा भड़काने के आरोप में कई लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। नताशा नरवाल को 23 मई को गिरफ्तार किया गया। नताशा जेएनयू की छात्रा हैं और ‘पिंजरा तोड़’ की सदस्य हैं। ये महिलाओं का वो समूह है,  जो दिल्ली के हॉस्टल और घरों में पेइंग गेस्ट की तरह रहने वाली लड़कियों के ऊपर लगने वाले प्रतिबंध को कम करने की दिशा में काम करता है। साल 2015 में ये समूह बना था।  दिल्ली हिंसा मामले में पिंजरा तोड़ समूह पर आरोप लगा कि उन्होंने 22-23 फरवरी के बीच दिल्ली के जाफराबाद मेट्रो स्टेशन में करीब 500 प्रदर्शनकारियों को इक्का किया था, जिनमें से ज्यादातर औरतें थीं। इन लोगों ने सीएए और एनआरसी के खिलाफ धरना दिया और अगले दिन यानी 24 फरवरी को इस इलाके में हिंसा हो गई।

पुलिस का कहना है कि, ‘5 जनवरी 2020 की एक वीडियो क्लिप है जिसमें देवांगना कलिता सीएए-एनआरसी के खिलाफ भाषण देती दिख रही हैं। इसके अलावा उनके ट्विटर के वीडियो लिंक से भी यह पता चलता है कि वह 23 फरवरी, 2020 को वहां मौजूद थीं।’ इसी मामले में पुलिस ने आसिफ को भी गिरफ्तार किया था। 24 वर्षीय इस छात्र को उमर खालिद, शरजील इमाम, सफूरा जरगर और मीरान हैदर का साथी बताया गया था। शाहीन बाग के रहने वाले आसिफ पर पिछले साल 15 दिसंबर में जामिया में हिंसा भड़काने का भी आरोप है।

देवांगना, नताशा और आसिफ ने जमानत के लिए अर्जी भी दी थी। देवांगना और नताशा की जमानत को जनवरी महीने में एक जांच अदालत ने खारिज कर दिया था और कहा था कि उनके खिलाफ लगे आरोप पहली नजर में सही दिखाई देते हैं। हाई कोर्ट में दिल्ली पुलिस के वकील ने आसिफ को जमानत देने का यह कहकर विरोध किया था कि दंगों की सुनियोजित साजिश रची गई और आसिफ  इसका हिस्सा थे। जबकि आसिफ के वकीलों ने कहा था कि दंगों के दौरान उनके मुवक्किल दिल्ली में मौजूद नहीं थे। नताशा नरवाल को पिछले माह अपने पिता महावीर नरवाल के अंतिम संस्कार के तीन हफ्ते के लिए अंतरिम जमानत मंजूर की गई थी और आदेश के मुताबिक वे 31 मई को जेल वापस लौट आई थीं। दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान कहा था कि इस मामले में कुल 740 अभियोजन पक्ष के गवाह हैं जिनकी अभी जांच होनी है और इसी आधार पर इनकी जमानत का विरोध पुलिस करती रही।

यानी 740 लोगों की गवाही और जांच होने तक तीन छात्रों की कैद जारी रखी जाती और उन्हें देश के दुश्मन की तरह पेश किया जाता, महज इसलिए क्योंकि उन्होंने सरकार के बनाए कानूनों की मुखालफत की। हालांकि दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस अनूप जयराम भंभानी की डिविजन बेंच ने इन तीनों को जमानत देते हुए पुलिस को फटकार लगाई कि ‘कोर्ट कब तक इंतजार करे? आरोपी को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित ट्रायल का अधिकार है।’ इसके साथ ही अदालत ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘ऐसा लगता है कि सरकार के मन में असंतोष की आवाज को दबाने को लेकर चिंता है। संविधान की ओर से दिए गए प्रदर्शन के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच का अंतर हल्का या धुंधला हो गया है। अगर इस तरह की मानसिकता बढ़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए काला दिन होगा।’

अदालत की यह टिप्पणी सरकार के साथ-साथ उस पुलिस-प्रशासन के लिए विचारणीय है, जिस पर कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है। लेकिन उस जिम्मेदारी से अधिक वह सत्ता की चाकरी करने की परिपाटी डाल रही है।  दिल्ली दंगों में पुलिस ने जिस तरह की कार्रवाई की, उस पर बार-बार सवाल उठे। अदालत ने संविधान की ओर से दिए गए प्रदर्शन के अधिकार को रेखांकित कर उन तमाम लोगों का मनोबल ऊंचा करने का काम किया है, जो किसी भी अन्याय के खिलाफ आगे आने का साहस करते हैं। बीते कुछ समय में कई बार ऐसे विरोध-प्रदर्शनों को देशविरोधी गतिविधि ठहराने की साजिश की गई है। बीते नवंबर से चल रहे किसान आंदोलन पर भी इस तरह की निम्नस्तरीय टिप्पणियां की गई हैं। हालांकि सरकार और पुलिस की दमनकारी नीतियों के बावजूद गलत को गलत और सही को सही कहने वाले लोग अब भी समाज में मौजूद हैं। विरोध की हरेक आवाज को आतंक की आवाज बताकर दबाया नहीं जा सकता। आज दिल्ली हाईकोर्ट की अदालत ने सत्ता की गलत बातों के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों का हौसला बुलंद किया है।

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