टीकों के निर्माण में मोदीजी एकाधिकार खत्म हो
देश में कोरोना के बढ़ते मामलों के लिए टीकाकरण की धीमी प्रक्रिया काफी हद तक जिम्मेदार रही
देश में कोरोना के बढ़ते मामलों के लिए टीकाकरण की धीमी प्रक्रिया काफी हद तक जिम्मेदार रही। यह बात जाहिर हो चुकी है कि सरकार ने सबसे बड़ा टीकाकरण चलाने का जो दावा किया था, उसमें खुद के लिए वाहवाही की चाह अधिक थी, जनकल्याण का इरादा कम था।
अमेरिका, इजरायल, रूस, इंग्लैंड, चीन जैसे कई देशों ने बड़े पैमाने पर टीकाकरण कर अपनी जनता को सुरक्षित करने का काम किया। कई देशों में 18 साल से कम आयु वालों के लिए भी टीकाकरण शुरु किया जा चुका है। लेकिन भारत में सरकार की बदइंतजामी और नाकाबिलियत के कारण टीकाकरण को लेकर सही फैसले नहीं लिए गए। दो कंपनियों के टीकों के दम पर सरकार ने जनता को यह भरोसा दिलाना चाहा कि देश कोरोना से लड़ाई जीत लेगा। जिस तरह जीएसटी लागू करने के बाद हर थोड़े दिन में उसके नियमों में बदलाव किया जाता रहा। कुछ वैसा ही हाल टीकाकरण को लेकर रहा। पहले स्वास्थ्यकर्मियों और बुजुर्गों के लिए टीकाकरण शुरु हुआ, फिर 45 साल से ऊपर के लोगों के लिए, उसके बाद 18 साल से अधिक के लोगों के टीकाकरण के लिए सरकार ने मंजूरी दी।
अच्छी बात है कि सरकार ने टीकाकरण का दायरा लगातार बढ़ाया, लेकिन इतनी आबादी के लिए टीकों का इंतजाम नहीं किया। बल्कि नोटबंदी की तरह इस बार टीकों के लिए लोगों को कतार में खड़ा करवा दिया। मोदीजी के भक्तों को इस बात का जवाब ईमानदारी से ढूंढना चाहिए कि ये कैसे अच्छे दिन हैं, जहां आदमी को पहले अपनी गाढ़ी कमाई की रकम हासिल करने के लिए कतार में लगना पड़ा और अब अपनी जान की सुरक्षा के लिए।
सरकार से इस बात के लिए भी जवाब मांगने चाहिए कि आखिर टीकों की कीमत केंद्र और राज्यों के लिए, निजी और सरकारी अस्पतालों के लिए अलग-अलग क्यों है। क्या सरकार इंसान की जान की कीमत भी अलग-अलग तय करती है। बहरहाल, एक बड़ा सवाल ये भी है कि आखिर किसलिए सरकार ने केवल दो कंपनियों के टीकों पर देश को निर्भर रखा। काफी दबाव के बाद स्पूतनिक वी को मंजूरी मिल गई और अब शायद जानसन एंड जानसन के टीके को भी मंजूरी मिल जाए। लेकिन भारत में जब कुछ और ऐसे प्रतिष्ठान हैं, जहां टीके को विकसित करने का काम किया जा सकता है, तो फिर सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक पर सरकार निर्भर क्यों है।
गौरतलब है कि भारत में टीकों के विकास का लंबा इतिहास है। साहिब सोखे के नेतृत्व में हॉफकीन इंस्टीट्यूट और डा. पुष्प भार्गव के नेतृत्व में सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलाजी ने भारत की टीका तथा बायोलॉजिक्स क्षमताओं की संभावनाओं को विस्तार दिया। 1970 के पेटेंट कानून तथा सीएसआईआर की प्रयोगशालाओं द्वारा दवाओं की रिवर्स इंजीनियरिंग के बूते भारत ने दवाओं और टीकों के क्षेत्र में वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार को चुनौती दी।
उस दौर की सरकारों की इच्छाशक्ति के कारण भारत सारी दुनिया में दवाओं तथा टीकों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बनकर सामने आया और दुनिया भर के गरीबों का दवाखाना कहलाने लगा। लेकिन आज इस दवाखाने में अपने ही लोगों के लिए दवाओं और टीकों का अभाव है, क्योंकि मौजूदा मोदी सरकार इसमें भी निजी क्षेत्र को ही आगे बढ़ाने में लगी है। सरकार शायद यही मानती है कि शासन का काम तो सिर्फ इतना है कि वह बड़ी पूंजी की मदद करे। मोदीजी पहले यह कह चुके हैं कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है, इसलिए उन्होंने निजीकरण को बढ़ावा दिया। टीकों के निर्माण में भी उनकी सोच शायद यही है।
अगर सरकार निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ उन सार्वजनिक कंपनियों को भी टीका निर्माण में संलग्न कर ले, जिनकी क्षमताओं का अभी उपयोग नहीं किया जा रहा है, तो अनुमान है कि भारत आसानी से अपनी टीका उत्पादन क्षमता 4 अरब तक बढ़ा सकता था और चालू वर्ष में ही जरूरी 2 अरब से ज्यादा टीका खुराकें बना सकता था। मगर इसके लिए दूरदृष्टा सरकार और उसकी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए योजना आयोग जैसी संस्था की जरूरत थी। इस वक्त नीति आयोग यह जिम्मेदारी उठाते नहीं दिख रहा है। सरकार की नाकामी की कीमत जनता अपनी जान देकर चुका रही है। लेकिन इस सिलसिले पर रोक लगानी होगी। सरकार को जल्द से जल्द टीकों के निर्माण में भारत की श्रेष्ठ विज्ञान संस्थाओं को जोड़ना होगा, ताकि जनता को टीकाकरण के जरिए सुरक्षित किया जा सके।