इशरत जहां केस: इंसाफ़ और इज़्ज़त के लिए एक अकेली मां की जंग

कोई उसकी क़ब्र पर पानी छिड़क कर साफ़ कर देता है तो कोई उस पर फूल बिखेर देता है. यही बातें इशरत जहां की मां शमीमा कौसर को यक़ीन दिलाती हैं कि उसे लोग अब भी याद रखे हुए हैं. क़ब्र पर फूल चढ़ा कर और उसे साफ़-सुथरा कर वो इशरत को मानों अपनी यादों में बनाए रखना चाहते हैं. पानी छिड़क कर क़ब्र को साफ़ करना, फूल चढ़ाना- सब उसके चाहने वालों का काम है.
सत्रह साल हो गए. तमाम एजेंसियों ने जाँच कर ली. कई चार्जशीट दाख़िल हो गईं. कई लोगों की गिरफ्तारियां हुईं. लेकिन इशरत जहां मुठभेड़ कांड में गिरफ़्तार सभी सातों पुलिस अफ़सरों को सीबीआई अदालत ने बरी कर दिया. लेकिन इशरत जहां की मां नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी की कहानी यहीं ख़त्म हो जाए. वह इस अंत को बदलने के लिए तैयारी कर रही हैं.

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कौन हैंशमीमा कौसर?
इशरत को मुठभेड़ में मार गिराए जाने के बाद से अब तक उनका परिवार कई घर बदल चुका है. लेकिन इशरत वहीं मुंबरा की उस कब्रिस्तान में सोई हुई हैं और फूल भी उनकी कब्र पर वैसे ही सजे हैं.
शमीमा कौसर बेटी की कब्र पर नहीं जातीं. उनके धर्म में इसकी इजाजत नहीं है. लेकिन उन्हें अपने बेटों से पता चलता है कि इशरत की कब्र को किसी ने लावारिस नहीं छोड़ा है. यह दूसरी कब्रों की तरह यूं ही नहीं छोड़ दी गई है. कोई इसकी देखभाल करता है.
वहां रखे जाने वाले फूलों की बात करते हुए शमीमा कहती हैं कि उन्हें नहीं मालूम इन्हें वहां कौन लाता है. इससे फर्क भी नहीं पड़ता कि ये फूल वहां कौन रख जाता है लेकिन इससे उन्हें एक उम्मीद बंधती है.
क्या आपको इशरत को सुपुर्दे-ए-खाक किए जाने की याद है? शमीमा कहती हैं, ”हां, अच्छी तरह याद है. जनाजे में हजारों लोग शामिल हुए थे. इशरत जहां 2004 में एक पुलिस मुठभेड़ में मारी गई थीं. हर साल इशरत के जन्मदिन पर उनकी मां फातिहा पढ़ती हैं. अगर आज इशरत जीवित होतीं तो 36 साल की होतीं.
अपनी शादी के बाद शमीमा पटना से मुंबई चली आई थीं. इशरत के पिता मोहम्मद शमीम रजा का इंतकाल 2002 में ही हो गया था. पति की मौत के बाद शमीमा पर आठ लोगों के परिवार को पालने की जिम्मेदारी आ गई.
शमीमा और उनकी बड़ी बेटी दवा बनाने की एक फैक्टरी में काम करने लगीं. 12 घंटे की ड्यूटी के बाद महीने में 3000 रुपये मिलते थे. मकान का किराया ही 1200 रुपये था. बड़ी मुश्किल से गुजर हो रही थी. वह कहती हैं, परिवार चलाने के लिए बहुत कुछ झेलना पड़ा.
घर का खर्चा चलाने में मदद करने के लिए इशरत जहां हाईस्कूल से ही ट्यूशन पढ़ाने लगी थीं. 2004 में वह मारी गई थीं. उस समय वह गुरुनानक खालसा कॉलेज में बीएससी कर रही थीं.
शमीमा कहती हैं, “लोग इशरत को जानते थे. उसके बारे में जो कहा गया, उस पर लोगों को कभी विश्वास नहीं हुआ.”
फोन पर बात करते हुए शमीमा का गला भर आता है. वह रो पड़ती हैं. थोड़ी देर बाद खुद को संभालती हैं और फिर बात करती हैं.
वह कहती हैं, “मैं तो चाहती थी कि मेरे बच्चे पढ़-लिख जाएं. मुझे क्या पता था कि हमारे साथ यह सब होगा. मैं कहां तक लड़ूं ?
शमीमा अब काम नहीं करतीं. अपने दो बेटों, एक बेटी और बहू के साथ वन बीएचके अपार्टमेंट मे रहती हैं.

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क्या थी ‘नकली‘ मुठभेड़?
आज से सत्रह साल पहले का वाकया है. अमजद अली राणा, जीशान जौहर, जावेद गुलाम शेख उर्फ प्राणेश पिल्लई और इशरत अपनी नीली इंडिका कार से अहमदाबाद की ओर जा रहे थे. ठीक उसी वक्त उप पुलिस महानिदेशक की अगुआई में एक पुलिस टीम ने उनका पीछा करना शुरू किया. आखिरकार 15 जून, 2004 को तड़के पांच बजे एक सुनसान सड़क पर चारों को मार गिराया गया.
पुलिस ने दावा किया कि चारों का संबंध पाकिस्तान स्थित चरमपंथी समूह लश्कर-ए-तैयबा से था.
मुठभेड़ के बाद पुलिस ने अहमदाबाद में पत्रकारों को बताया कि उन्हें कश्मीर से दो पाकिस्तानी फिदाइनों के अहमदाबाद आने की सूचना मिली थी. उनका इरादा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला करने का था. जौहर और राणा की पहचान पाकिस्तानी नागरिक के तौर पर की गई, जबकि शेख को कथित तौर पर उनका ‘स्थानीय नेटवर्क’ संभालने वाला कहा गया.
पुलिस की ओर से दर्ज शिकायत में इशरत की पहचान उनके नाम से नहीं की गई थी. कहा गया था कि मुठभेड़ में मारा गया चौथा शख्स एक ‘महिला चरमपंथी’ है.
इस मुठभेड़ के पांच साल बाद यानी 2009 में अहमदाबाद कोर्ट ने कहा कि मुठभेड़ नकली थी.
अहमदाबाद कोर्ट ने यह फैसला मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग की रिपोर्ट पर दिया था. 243 पेज की इस रिपोर्ट में तमांग ने पुलिस अधिकारियों को इशरत और तीन अन्य लोगों की दिनदहाड़े हत्या का आरोपी करार दिया.
रिपोर्ट में कहा गया था कि पुलिस अधिकारियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस नकली मुठभेड़ को अंजाम दिया. उन्होंने यह सब प्रमोशन और मुख्यमंत्री की शाबाशी पाने के लिए किया था.
लेकिन गुजरात सरकार ने अदालत में इस रिपोर्ट को चुनौती दी. गुजरात हाई कोर्ट ने इस रिपोर्ट को रोक दिया और मुठभेड़ की जांच के लिए एसआईटी गठित कर दी. 2011 में एसआईटी ने कहा कि यह मुठभेड़ ‘नकली’ थी.
इन खुलासों के बाद 2011 में इस मामले की सीबीआई जांच के आदेश दिए गए. 3 जुलाई 2013 को सीबीआई ने इस मामले में अहमदाबाद हाई कोर्ट में पहली चार्जशीट दायर की. सीबीआई ने कहा कि चारों की नकली पुलिस मुठभेड़ में बेरहमी से हत्या की गई है.
सीबीआई ने सात पुलिस अफसरों- पीपी पांडे, डीजी बंजारा, एनके अमीन, जीएल सिंघल, तरुण बरोट, जे जी परमार और अनाजु चौधरी को आरोपी बनाया.
लेकिन गुजरात सरकार ने सीबीआई को अपने इन अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी. इस वजह से ये सभी आरोपी इस केस से बरी हो गए. 31 मार्च, 2021 को सीबीआई की विशेष अदालत ने पुलिस महानिरीक्षक जीएल सिंघल समेत आखिरी तीन पुलिस अधिकारियों को भी बरी कर दिया.
गुजरात सरकार और सीबीआई की भूमिका
2002 से लेकर 2006 के बीच गुजरात पुलिस पर 31 हत्याओं के आरोप लगे. इनमें से आधे कुछ पुलिस अधिकारियों ने किए. कहा गया कि पुलिस मुठभेड़ में लगभग आधे लोग चरमपंथी थे, जो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे राजनीतिक नेताओं की हत्या करना चाहते थे.
हालांकि, आलोचकों का आरोप है कि गुजरात सरकार ने इन मुठभेड़ों को अंजाम देने वाले पुलिस अफसरों का न सिर्फ बचाव किया बल्कि उन्हें प्रमोशन भी दिए.
शमीमा की वकील वृंदा ग्रोवर कहती हैं कि इशरत जहां की एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल किलिंग के आरोपी पुलिस अफसरों को बरी करना सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेशों की अवहेलना है.
वह कहती हैं, “सीबीआई कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सभी सबूतों को दरकिनार तक सिर्फ़ गुजरात सरकार ने जो कहा उसे मान लिया. जबकि इशरत का किसी चरमपंथी गतिवधि में शामिल होने का कोई सबूत नहीं है.
ग्रोवर ने कहा कि मारे गए लोगों की आपराधिक पृष्ठभूमि का हवाला देकर सभी पुलिस अफसरों को बरी कर देने का मतलब इन मुठभेड़ों को सही ठहराना है. इस मामले में पुलिसवालों को दंड न देकर एक तरह से पुरस्कृत किया गया है.
उन्होंने बीबीसी न्यूज़ से कहा, “इसका मतलब यह कि राज्य जिन लोगों को दुश्मन और अपराधी समझता है उन्हें इस तरह खत्म किया जा सकता है. यह हम सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए.”

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ग्रोवर का मानना है कि अगर शमीमा ने इंसाफ की जंग नहीं लड़ी होती तो इस केस के कई पहलू कभी सामने नहीं आते.
वृंदा ग्रोवर कहती हैं, “2004 से लेकर 2019 तक शमीमा अपनी बेटी के लिए इंसाफ की जंग लड़ती रहीं. 2013 और फिर 2014 की शुरुआत में जब इस मामले में आरोप पत्र दाखिल किए गए तो शमीमा को उम्मीद बंधी थी कि शायद आरोपी पुलिस वालों को सजा मिलेगी.
लेकिन 2019 में आरोपी पुलिस अफसरों ने बरी होने के लिए इस आधार पर याचिका दायर की कि उनके ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने के लिए पहले से इजाजत नहीं ली गई थी. इस आधार पर आरोपी सभी पुलिस अधिकारियों को छोड़ दिया गया.
ग्रोवर ने इन अफसरों को बरी करने किए जाने को चुनौती दी है. वह कहती हैं, “किसी लोक सेवक के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाए जाने से पहले अनुमति लेने की जो कानूनी सुरक्षा दी गई है, वह इस केस में लागू नहीं होती क्योंकि सीबीआई ने बड़ी मेहनत से जांच के बाद यह कहा था कि पुलिस मुठभेड़ नकली थी. इशरत जहां का पहले अपहरण किया गया और फिर दो दिनों तक गैरक़ानूनी कैद में रखा गया. और फिर उन्हें बड़ी बेरहमी से गोली मार दी गई.
सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में कहा कि पहले इशरत का अपहरण किया गया और फिर उन्हें 12 जून 2004 से गैरकानूनी ढंग से कैद रखा गया.
वृंदा ग्रोवर कहती हैं, “इस तरह के केस में मुकदमा चलाने के लिए पहले से इजाजत लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि कोई भी पुलिस अफसर अपनी ऑफिशियल ड्यूटी के तहत कस्टडी में रखे शख्स की हत्या नहीं कर सकता. खुद सीबीआई ने कोर्ट के सामने कहा था कि इस केस में मुकदमा चलाने के लिए राज्य की इजाजत की जरूरत नहीं है.”
ग्रोवर का कहना है कि कोर्ट ने पाकिस्तानी डबल एजेंट डेविड हेडली के कथित बयान पर तो भरोसा किया लेकिन सीबीआई चार्जशीट में पेश किए गए सबूतों को नजरअंदाज कर दिया.
ग्रोवर कहती हैं, ” इस मामले में पुलिस अफसरों को बरी करने के आदेश का सबसे खतरनाक पहलू यही है कि अगर वे किसी को अपराधी या चरमपंथी समझते हैं, तो उन्हें सीधे जान से मार सकते हैं. “
बीबीसी न्यूज़ ने इशरत जहां केस में इन पुलिस अफसरों को बरी करने के मामले पर गुजरात सरकार से उनका पक्ष जाना चाहा तो कोई जवाब नहीं मिला.
इंसाफ के लिए एक मां की जंग
इशरत की मां शमीमा ने सीबीआई को लिखा, “मुझे नहीं मालूम था कि सच और इंसाफ की लड़ाई इतनी मुश्किल, विकट, ज़िंदगी को निचोड़ लेने वाली और लगभग असंभव काम साबित होगी.”
अपनी बेटी की हत्या के आरोपी पुलिस अफसरों को बरी करने के बाद यही उनकी फौरी प्रतिक्रिया थी.
शमीमा ने इस मुठभेड़ में हुई हत्या की सीबीआई जांच की मांग करते हुए 2004 में हलफनामा दायर किया था. आखिरकार 2019 में उन्होंने सुनवाई में जाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वर्षों चले इस केस ने उन्हें थका दिया है .
उन्होंने कहा, “इंसाफ की इस लंबी जंग में अदालती प्रक्रिया ने उनके जज्बे को तोड़ दिया है. अब आगे की सुनवाइयों में वह हिस्सा नहीं ले पाएंगीं.”
शमीमा ने 2019 में सीबीआई से कहा था, “अब यह सीबीआई की ज़िम्मेदारी है कि दोषियों के ख़िलाफ़ मुकदमा चले और उन्हें सजा मिले.
वह कहती हैं, “मुझसे कहा जाता है कि भारत की न्याय व्यवस्था सभी को इंसाफ देती है. इस देश की अदालतें इंसाफ़ करते वक़्त नहीं देखतीं की आरोपी का ओहदा या कद क्या है. लेकिन मेरे साथ अभी तक इंसाफ़ नहीं हुआ. मैं आज भी न्याय मांग रही हूं. “

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पिछले कुछ वर्षों के दौरान इशरत के परिवार से मुलाकात करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक हर्ष मंदर कहते हैं, “यह बात ही बड़ी दुखदायी है कि उनकी बेटी को चरमपंथी करार दिया जाए और इसका मुकाबला करने के लिए उनके रास्ते बंद हो जाएं. एक विधवा की सरपरस्ती वाले इस मुस्लिम परिवार की दिल खोल कर तारीफ होनी चाहिए.”
लेकिन, अब शमीमा पुलिस अफसरों को बरी करने के आदेश को फिर चुनौती देने की तैयारी कर रही हैं. बीबीसी न्यूज से वह कहती हैं, “2019 में मैं बहुत बीमार पड़ गई थी. इसलिए केस छोड़ने का फैसला किया था.”
एक मां के लिए उनकी बेटी यानी इशरत एक ऐसी लड़की थी जो खुद अपनी मेहनत से कुछ बनना चाहती थी लेकिन उसे मार दिया गया. उसकी गरिमा खत्म कर दी गई.
वह कहती हैं, “मैंने इंसाफ़ की इस जंग में बहुत लंबा सफर तय किया. मैं लड़ती रही, लड़ती रही और आखिरकार थक-हार कर बैठ गई. लेकिन मेरी बेटी इंसाफ की हकदार है. मैं डर कर नहीं बैठी हूं. डरूं क्यों. एक न एक दिन सबको मरना है.”

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बगैर तस्वीर की याद
इशरत मुंबरा में पली-बढ़ीं जो मुंबई महानगर क्षेत्र के पास ठाणे ज़िले का एक शहर है. एक ऐसी जगह, जिसे मुंबई का बाहरी इलाक़ा कहा जा सकता है. इस मायने में यह सचमुच बाहरी है क्योंकि 1992-93 में मुंबई दंगों के बाद महानगर से बाहर जाने को मजबूर हजारों मुस्लिमों को यहीं पनाह मिली.
उत्तर पूर्वी मुंबई में बसे ठाणे के नज़दीक इस इलाक़े के मकानों की दीवारों पर उदासी की परतें हैं. ये मकान उदास, धूमिल और उपेक्षित दिखते हैं.
यह आप्रवासी मजदूरों, मुस्लिम श्रमिकों और इस शहर के अदृश्य लोगों की बस्ती है. लेकिन कुछ लोगों के लिए उनकी उड़ानों, उम्मीदों, सपनों और ख्वाहिशों की जगह है.
शमीमा पिछली यादों में खो जाती हैं. कहती हैं, “मुंबरा में हर कोई इशरत को जानता था. आप सिर्फ़ नाम पूछते और बच्चे बता देते कि उसका घर कहां है. आज भी वे इशरत को याद करते हैं.”
वह कहते हैं कि इशरत के पढ़ाए सारे बच्चे अब बड़े हो गए हैं. लेकिन इशरत की कोई तस्वीर उसके घर में नहीं है. इशरत अपने परिवारों की यादों में बसी है.
15 जून 2004 को कुछ पत्रकारों ने मुंबरा में इशरत के घर पहुंच कर उसकी फोटो मांगी थी. शमीमा कहती हैं, पहले तो उन्होंने कहा कि वे उसके कॉलेज से आए हैं और कोई फॉर्म भरना चाहते हैं. इसलिए फोटो चाहिए. “
छत वाले मकानों और झरनों के बैकग्राउंड वाली नीली सलवार कमीज पहनी हुई इशरत की यही तस्वीर बाद में मीडिया में इस्तेमाल हुई.
फोटो लेने के बाद पत्रकारों ने शमीमा और उनके घर वालों को बताया कि इशरत पुलिस मुठभेड़ में मारी गई हैं.
शमीमा कहती हैं, ”इशरत की वही एक तस्वीर उनके पास थी. इशरत की यह तस्वीर एक स्टूडियो में ली गई थी. वह जानती हैं कि वह किनके खिलाफ लड़ने जा रही हैं. लेकिन प्यार सबकुछ करा लेता है. वह इशरत को प्यार करती हैं.
सत्रह साल हो गए. इशरत की कहानी मिटी नहीं है. इंसाफ और गरिमा की उसकी जंग जारी है. इसका सबूत है उनकी वो कब्र जहां वह गहरी नींद में सोई हुई हैं, फिर कभी न उठने के लिए. लेकिन फूलों से ढकी वह जगह इंसाफ़ की उनकी जंग की गवाही बन गई है.