बैंक हड़ताल: मोदी सरकार क्या बैंकों को प्राइवेट बनाकर समस्या सुलझा लेगी?

बैंकों की दो दिवसीय हड़ताल की शुरुआत सोमवार से हो चुकी है.
नौ बैंक यूनियनों के समूह यूनाइटेड फ़ोरम ऑफ़ बैंक यूनियन ने सरकारी बैंकों के निजीकरण के ख़िलाफ़ 15 और 16 मार्च को राष्ट्रव्यापी बैंक हड़ताल की घोषणा की थी.
इस दौरान सरकारी बैंकों की ब्रांच में पैसे जमा करने, निकालने और चेक क्लियरेंस जैसे काम पर असर पड़ेगा. हालांकि, एटीएम काम करते रहेंगे. इस हड़ताल में बैंकों के 10 लाख से अधिक कर्मचारी और अधिकारी शामिल होंगे.
वहीं, आईसीआईसीआई, एचडीएफ़सी, एक्सिस, कोटेक महिंद्रा और इंड्सइंड जैसे बैंकों का कामकाज सामान्य दिनों की तरह चलता रहेगा.
क्यों हो रही है बैंकों की हड़ताल?
हाल ही में सालाना बजट पेश करने के दौरान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने विनिवेश के ज़रिए 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की थी. केंद्र की मोदी सरकार कई सरकारी कंपनियों के साथ-साथ कुछ बैंकों के निजीकरण के ज़रिए इतनी रक़म जुटाएगी.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया था कि केंद्र सरकार दो सरकारी बैंकों का निजीकरण करेगी. वहीं, आईडीबीआई बैंक के पूरे तरह निजीकरण की प्रक्रिया प्रस्तावित है. किन दो बैंकों का निजीकरण होगा यह अभी तक साफ़ नहीं है.
15 फ़रवरी को समाचार एजेंसी रॉयटर्स की एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया था कि बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ़ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया में से किन्हीं दो बैंकों का निजीकरण हो सकता है.
आईडीबीआई बैंक अभी निजी क़र्ज़दाता है. जनवरी 2019 में एलआईसी ने आईडीबीआई बैंक की 51 फ़ीसदी हिस्सेदारी ख़रीदी थी जिसको केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अगस्त 2018 को मंज़ूरी दी थी. एलआईसी अभी सरकारी हाथों में है इसलिए आईडीबीआई को पूरी तरह निजी बैंक नहीं माना जाता है. हालांकि, ऐसा अनुमान लगाया गया है कि एलआईसी आईडीबीआई की अपनी हिस्सेदारी धीरे-धीरे बेच सकती है.
मोदी सरकार सरकारी बैंकों का निजीकरण क्यों कर रही है?

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बैंकों का निजीकरण कितना सही?
देश के केंद्रीय बैंक आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए इंटरव्यू में निष्प्रभावी सरकारी बैंकों के सफल निजीकरण पर संदेह जताया है.
साथ ही उन्होंने कहा है कि अगर ये कॉर्पोरेट घरानों को बेच भी दिए जाते हैं तो यह एक ‘बहुत बड़ी ग़लती’ होगी. उन्होंने कहा कि अगर किसी भारी भरकम बैंक को किसी विदेशी बैंक को बेच दिया जाता है तो यह राजनीतिक रूप से अव्यावहारिक होगा.
राजन का कहना है कि दो बैंकों के निजीकरण की जानकारी बेहद कम है और इस समय केवल एक निजी बैंक में सरकारी बैंक को ख़रीदने की क्षमता है लेकिन यह अभी साफ़ नहीं है कि वो इसे ख़रीदेगा या नहीं.
हाल ही में समाचार चैनल एनडीटीवी के टाउन हॉल कार्यक्रम में भी रघुराम राजन ने बैंकों के निजीकरण को ग़लती बताया था.
उन्होंने कहा था कि ‘अगर कोई अपनी कंपनी के लिए ही क़र्ज़ ले लेता है तो ऐसे किसी भी संभावित अपराध को पकड़ने के लिए हमारे पास कोई नज़र रखने वाला ढांचा नहीं है. इसलिए मैं कहूंगा कि इस विचार को त्याग दिया जाना चाहिए.’

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फिर बैंकों के निजीकरण की क्या प्रक्रिया हो सकती है? इस सवाल के जवाब में राजन ने कहा कि इस समय सरकारी बैंकों के संचालन तंत्र को ठीक करने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, “पेशेवर लोगों को और लाइये, बोर्ड को सीईओ नियुक्त करने और हटाने का खुला अधिकार दीजिए और फिर सरकार का नियंत्रण हटा लीजिए. इस तरह से यह सरकारी कॉर्पोरेशन, जनता के हित में काम करते हुए जनता के पास होंगे न कि सरकार के पास.”
“यह संभव है लेकिन इसमें समय लगेगा. मुझे नहीं पता है कि इसके लिए एक साल का समय दिया है या फिर इन बैंकों को निजीकरण के लिए तैयार कर दिया गया है. दुर्भाग्य से हमारे निजीकरण का इतिहास बेहद निराशाजनक रहा है.”
औद्योगिक घरानों को बैंक स्थापित करने की आरबीआई की सिफ़ारिश के बाद बीते साल नवंबर में ग्लोबल रेटिंग एजेंसी एस एंड पी ने इस पर चिंता जताई थी.
एस एंड पी का कहना था कि कॉर्पोरेट घरानों को अपना बैंक स्थापित करने की अनुमति दे देने से हितों का टकराव, आर्थिक शक्ति की एकाग्रता और वित्तीय स्थिरता जैसी चीज़ों को ख़तरा हो सकता है.
कॉर्पोरेट बैंकों को मालिकाना हक़ मिलने से इंटर-ग्रुप क़र्ज़ की प्रक्रिया, फ़ंड्स के परिवर्तन जैसे ख़तरे हो सकते हैं.

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सरकार का नियंत्रण हटाने के पक्ष में हैं अर्थशास्त्री?
बैंकों के निजीकरण पर आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर एसएस मूंदड़ा ने समाचार चैनल सीएनबीसी-टीवी18 से कहा कि हर बीमारी का हल निजीकरण ही है यह भी नहीं मान लिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, “हम बहुत से उदाहरण देख चुके हैं और मैं मानता हूं कि कोई भी अभी यह निष्कर्ष निकाल पाने में सक्षम नहीं है कि यही एक तरीक़ा है.” मूंदड़ा कहते हैं कि ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां पर कामकाज़ को स्वामित्व से अलग किया गया है.
“यह एक अच्छा मॉडल हो सकता है. यहाँ दो मुद्दे और हैं, एक है कामकाज़ की स्वतंत्रता और दूसरा पूंजी. अगर विकास के अवसर हैं और पूंजी बढ़ती है तो वहाँ पर बहुत सी सीमाएं भी होंगी क्योंकि विभिन्न क्षेत्र भी इस पर दावा करेंगे.”
“अगर इसे कई चरणों में भी किया जाता है तो यह मददगार साबित होगा क्योंकि आपके पास स्वामित्व का आश्वासन होगा और पूंजी बढ़ाने की स्वतंत्रता होगी.”
वहीं, एसबीआई के पूर्व चैयरमेन रजनीश कुमार का भी कहना है कि निजी सेक्टर का मालिकाना हक़ हो जाने से कामकाज़ की प्रणाली भी अच्छी हो जाए यह ज़रूरी नहीं है और इसको कई मामलों में देखा भी जा चुका है.
वो कहते हैं, “मैं सरकारी बैंक या सरकार के स्वामित्व का समर्थक नहीं हूं. यह सवाल हमेशा बना रहता है कि सरकार अपने कामकाज़ को बेहतर करने के लिए दिलचस्पी ले रही है या फिर अपना नियंत्रण छोड़ने में दिलचस्पी ले रही है. तो इसलिए हमें स्वामित्व को कामकाज़ की प्रणाली और नियंत्रण से अलग हटा देना चाहिए.”

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उनका मानना है कि सरकार को एक निवेशक की भूमिका निभानी चाहिए और उसे अपना नियंत्रण छोड़ देना चाहिए.
रजनीश कुमार कहते हैं, “अगर आप निवेशक होंगे तो आपकी उम्मीद एक निवेशक की तरह होगी. आप प्रदर्शन पर नज़र रखिए, प्रबंधन को जवाबदेह बनाइये और नियंत्रण छोड़ दीजिए.”
किन-किन बैंकों का निजीकरण होगा और यह किस प्रक्रिया के तहत होगा यह अभी तक साफ़ नहीं है. लेकिन बैंक यूनियनों से इतर इस बीच जनरल इंश्योरेंस कंपनियों की सभी यूनियनों ने भी 17 मार्च को हड़ताल की घोषणा कर दी है.
वहीं, एलआईसी की सभी यूनियनों ने 18 मार्च को हड़ताल की घोषणा की है. चार इंश्योरेंस कंपनियों की सभी यूनियनों ने सरकारी कंपनियों के निजीकरण के ख़िलाफ़ हड़ताल बुलाई है.