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भारत में मोदी शाशन में आंशिक आजादी !

प. बंगाल समेत पांच राज्यों में फरवरी के अंत में ही विधानसभा चुनावों की घोषणा की गई थी और इसके साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई थी….

प. बंगाल समेत पांच राज्यों में फरवरी के अंत में ही विधानसभा चुनावों की घोषणा की गई थी और इसके साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई थी। लेकिन पेट्रोल पंपों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीरें लगी हुई थीं। वे हंसते हुए कोरोना वैक्सीन ले रहे हैं, ये जनता रोज देख रही थी। वैक्सीन के साथ मिल रहे सर्टिफिकेट पर मोदीजी का नाम, तस्वीर और संदेश चस्पां हैं। कायदे से ये सब निर्वाचन आयोग को पहले ही दिख जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

प.बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन बताते हुए आयोग में शिकायत दर्ज करवाई, तब जाकर भारतीय निर्वाचन आयोग ने बुधवार को सभी पेट्रोल पंप डीलरों एवं अन्य एजेंसियों को 72 घंटे के भीतर अपने परिसर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले केंद्रीय योजनाओं के होर्डिंग हटाने का निर्देश दिया। अगर आयोग ये काम पहले ही कर लेता तो उसकी विश्वसनीयता को थोड़ा बल मिलता। खैर अच्छा ही हुआ कि मोदीजी की तस्वीर पेट्रोल पंपों से हट गई, अन्यथा इसमें प्रचार के फायदे की जगह भाजपा को नुकसान भी झेलना पड़ सकता था। क्योंकि जिस तरह इस सरकार ने लोगों को तेल की एक-एक बूंद के लिए मोहताज कर दिया है, उससे लोगों में नाराजगी पनप रही है। वैसे अभी चुनावी माहौल देखते हुए तेल की कीमतों को स्थिर रखने की कोशिश सरकार कर रही है। इधर केरल के भाजपा नेता कुम्मनम राजशेखरन ने तो दावा किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाकर उनकी कीमत 60 रुपए लीटर तक ले आएंगे। अगर भाजपा नेताओं के पास तेल की कीमतों को कम करने की ऐसी अनूठी योजना है तो क्यों नहीं इसका लाभ पूरे देश को दिया जाता।

खैर, पेट्रोल पंपों से तो होर्डिंग चुनाव आयोग के आदेश के बाद हट जाएंगे। लेकिन उन पोस्टरों को कैसे हटाया जाएगा, जो दुनिया की दीवारों पर भारत के लोकतंत्र को लेकर लगने शुरु हो गए हैं। अपने शुरुआती कार्यकाल में दुनिया भर में घूमकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मोदी-मोदी का शोर खूब सुन लिया। अब जरा उन्हें उन आवाजों पर भी गौर करना चाहिए, जो उनके कार्यकाल में लोकतंत्र के पतन को लेकर उठ रही हैं।

भारत में बढ़ती असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग, अल्पसंख्यकों-दलितों के उत्पीड़न आदि पर दूसरे देशों में भारत की छवि धक्का लगा ही है, बीते कुछ समय में कश्मीर, शाहीन बाग, सीएए, कृषि कानून जैसे मुद्दों पर भी सरकार के रवैये की आलोचना हुई है।  दुनिया के बहुत से प्रतिष्ठित प्रकाशनों में सरकार की संकीर्ण सोच पर चिंता व्यक्त की गई, क्योंकि इससे लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। विदेश में हुई आलोचनाओं को लेकर हाल ही में सरकार ने सख्त रवैया अपनाया, देश की कई जानी-मानी हस्तियों ने भी दूरंदेशी के बिना इन आलोचनाओं को नकार दिया। ये हमारा आंतरिक मामला है, हर बार ये कहकर बचा नहीं जा सकता। क्योंकि जब बात नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा की हो, तो फिर देशों की सीमाएं इन्हें किसी दायरे में नहीं रख सकती। ये मसले वैश्विक हैं और इन पर व्यापक नजरिया ही अपनाना पड़ता है। भारत में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, ये बात अब फ्रीडम हाउस की ताजा रिपोर्ट से भी जाहिर हुई है।

अमेरिका के एनजीओ फ्रीडम हाउस ने ‘2021 में विश्व में आजादी- लोकतंत्र की घेरेबंदी’ शीर्षक से जारी की गई अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ऐसा लगता है कि भारत ने वैश्विक लोकतांत्रिक नेता के रूप में नेतृत्व करने की क्षमता को त्याग दिया है और भारत के इस सूची में नीचे जाने से दुनिया भर के लोकतांत्रिक मापदंडों पर $खराब असर हो सकता है। बता दें कि इस साल भारत 100 में से 67 अंक ही हासिल कर सका है, जबकि पिछले साल हमें 71 अंक मिले थे। फ्रीडम हाउस दुनिया भर के देशों में आजादी के स्तर की पड़ताल करता है। और इस आधार पर देशों को ‘आजाद’, ‘आंशिक आजाद’ और ‘आजाद नहीं’ की रैंक देता है। भारत को इस बार आंशिक आजाद की श्रेणी में रखा गया है। यानी हालात सुधरने की उम्मीद अभी बाकी है। सवाल यही है कि क्या सरकार इस उम्मीद को पूरा करेगी। हाल ही में दिशा रवि, नौदीप कौर, शिव कुमार जैसे युवाओं की गिरफ्तारी को लेकर सरकार पर सवाल उठे थे। कई होनहार युवा सरकार विरोधी आवाज उठाने के कारण जेलों में बंद हैं।

दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। गुजरात में सुरक्षा प्राप्त होने के बाद भी एक दलित आरटीआई कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। सरकार के बहुत से फैसलों पर सवाल उठाने वाले कलाकारों तापसी पन्नू, अनुराग कश्यप पर इनकम टैक्स के छापे पड़ रहे हैं। जांच एजेंसियों का काम किसी भी तरह अनियमितता पर कार्रवाई करना है। लेकिन अभी हालत ये है कि सीबीआई या ईडी के छापों के पीछे राजनैतिक मंशा पर सवाल उठने लगते हैं। इन हालात की जिम्मेदारी सरकार को ही उठानी पड़ेगी, क्योंकि देश में संस्थाओं की निष्पक्षता और स्वायत्तता बरकरार रखने का जिम्मा उसका ही है। और ये सब तभी होगा जब लोकतंत्र के लिए सरकार जिम्मेदार बनेगी। आखिर लाखों लोगों ने आंशिक आजादी के लिए तो बलिदान नहीं दिया था।

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