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मोदी शाशन में बेटियों का भविष्य दांव पर…?

इस देश में लड़कियों की क्या हैसियत है…

 

इस देश में लड़कियों की क्या हैसियत है। क्या लड़की होना गुनाह है। क्या देश में वही माहौल फिर बनाया जा रहा है कि लड़की को गर्भ में ही मार दो, ताकि न वह इस दुनिया में आए, न उसे किसी किस्म की जिल्लत सहनी पड़े, न उसके परिजनों को कोई तकलीफ हो। क्या हम मध्ययुगीन बर्बरता की ओर लौट गए हैं। ये सारे सवाल इस वक्त देश की सड़कों पर तैर रहे हैं। और जिन्हें जवाब देना है, वे खुद असमंजस में दिखाई दे रहे हैं। बीते दिनों प.बंगाल में टीएमसी के अभियान बंगाल को बेटी चाहिए के जवाब में भाजपा का अभियान आया- बेटी चाहिए, बुआ नहीं। मानो बुआ घर की बेटी नहीं होती है। कुछ दिनों बाद बुआ घर की बेटी नहीं होती है, इसे स्पष्ट करते हुए एक भाजपा सांसद ने ट्वीट किया कि बेटी पराया धन होती है, इस बार विदा कर देंगे। ट्वीट पर हंगामा हुआ, तो उन्हें ये ट्वीट डिलीट करना पड़ा। लेकिन इससे लड़कियों को उनकी जगह बताने वाली क्रूर मानसिकता तो डिलीट नहीं हुई।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे जुमले गढ़ने वाली भाजपा के राज में बेटियों की दुर्दशा कठुआ से लेकर उन्नाव और  हाथरस तक देश ने देख ली है। अब एक बार फिर हाथरस से एक बेटी का वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वो रोकर इंसाफ की गुहार लगा रही है। उसके पिता ने उसके साथ छेड़खानी का विरोध किया तो गुंडों ने उन्हें गोलियां मार कर जान ले ली। उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव होते तो ये वीडियो राजनैतिक मुद्दा बन चुका होता, अभी न जाने इसका अंजाम क्या होगा। वैसे यहां सवाल उत्तरप्रदेश या किसी अन्य राज्य या भाजपा या किसी अन्य दल की सरकार से अधिक उस मानसिकता का है, जिसमें लड़कियों को उनके रूप-रंग, शील से आगे बढ़कर परखा ही नहीं जाता। उनकी कोई स्वतंत्र हैसियत पुरुषप्रधान मानसिकता के लोगों को चुभने लगती है। सोशल मीडिया पर मुखर होकर अपनी राय रखने वाली कई महिलाओं के साथ जिस अभद्र भाषा में उनके विरोधी बात करते हैं, वो इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। वे एक तरह से मानसिक तौर पर उनका शोषण कर, उन्हें दर्द पहुंचाने की कोशिश कर सुख पाते हैं।

महिलाओं के साथ दुराचार के मामलों में न कोई कानून काम करता दिख रहा है, न किसी सजा का कोई असर हो रहा है। धनंजय चटर्जी को फांसी के बाद भी निर्भया कांड हुआ और निर्भया के दोषियों को फांसी के बाद भी बिटिया कांड हुआ। यानी फांसी की सजा बलात्कार की रोकथाम के लिए कारगर नहीं है, यह दिख रहा है। छेड़खानी, बलात्कार या घरेलू हिंसा की घटनाएं तब तक नहीं रुकेंगी, जब तक समाज की मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन नहीं आएगा। ये काम रातों-रात नहीं होगा। इसके लिए समाज को लैंगिक समानता के लिए जागरुक औऱ संवेदनशील बनाने की योजनाबद्ध तरीके से शुरुआत करनी होगी। खेद इस बात का है कि ऐसे मसले राजनैतिक दलों और सरकारों की प्राथमिकताओं में नहीं हैं। देश की न्यायपालिका फांसी जैसी कड़ी सजा सुना सकती है।

लेकिन इसी न्यायपालिका से इस वक्त एक सवाल निकला, जिस पर अब विचार करने का वक्त आ गया है। दरअसल सोमवार को उच्चतम न्यायालय ने नाबालिग लड़की से दुष्कर्म के आरोपी एक सरकारी कर्मचारी से पूछा कि ”क्या वह लड़की से शादी करने को तैयार है।” शीर्ष अदालत को बताया गया कि आरोपी पहले से विवाहित है तो पीठ ने उसे नियमित जमानत के लिए संबंधित अदालत का रुख करने को कहा।

दरअसल इस आरोपी को निचली अदालत से अग्रिम जमानत मिल चुकी थी, लेकिन बंबई उच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत को रद्द करते हुए उसे जमानत देने पर सवाल भी उठाए थे। उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आरोपी ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी। शीर्ष अदालत की पीठ द्वारा सवाल पूछे जाने पर याचिकाकर्ता की तरफ से पेश वकील ने कहा कि आरोपी पहले लड़की से शादी करना चाहता था लेकिन उसने मना कर दिया तो उसने किसी दूसरी लड़की से शादी कर ली। यानी एक लड़की के साथ कई बार दुराचार के बाद आरोपी ने दूसरी लड़की से शादी भी कर ली। पुरुषप्रधान समाज का असली चेहरा यही है, जिसे छिपाने की झूठी कोशिश भी नहीं की जाती। औरत को बलात्कार के बाद मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा जैसे तानों के साथ जीना पड़ता है और बलात्कार करने वाला अपनी जिंदगी में आराम से आगे बढ़ जाता है।

बहरहाल, अब सवाल ये उठता है कि मान लें आरोपी शादी के लिए तैयार हो जाता, और पीड़िता से शादी कर लेता। तब भी क्या पीड़िता को न्याय मिल पाता। जिस व्यक्ति ने नाबालिग अवस्था में उसके साथ कई बार जबरदस्ती की, क्या उसके साथ अपनी इज्जत पर तथाकथित तौर पर लगे दाग को छिपाने के लिए शादी कर वह सुखी रह पाती। क्या उसका वैवाहिक जीवन सामान्य रहता या उसे जीवन भर समझौता करके रहना पड़ता।  प.बंगाल से लेकर बरास्ते उत्तरप्रदेश, दिल्ली तक औरत की दशा पर कई सवाल उठ खड़े हैं। हम इन सवालों का सामना करेंगे तो समाज को बेहतर बनाने वाले जवाब मिल सकते हैं। और जितना इन सवालों से मुंह चुराएंगे, उतना ही बेटियों का भविष्य दांव पर लगाएंगे।

 

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