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मोदी सरकार बहुमत के ज़ोर पर जो फैसले ले रही हैं उससे कैसे बचेगा लोकतंत्र ?

क्या मोदी सरकार के लिए लोकतंत्र, संविधान की व्यवस्थाओं, सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की कोई अहमियत नहीं है

क्या मोदी सरकार के लिए लोकतंत्र, संविधान की व्यवस्थाओं, सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की कोई अहमियत नहीं है। क्या मोदी सरकार हर उस फैसले को बदलेगी या पलटेगी, जिससे उसकी सत्ता पर कोई आंच आ सकती है। क्या देश पर 50 सालों तक शासन करने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सरकार संवैधानिक संस्थाओं को अपनी कठपुतली बनाने में जरा भी नहीं झिझकेगी। ये सारे सवाल दरअसल मानसून सत्र के दौरान आई एक खबर की उपज हैं। वैसे तो इस बार का मानसून सत्र मणिपुर मुद्दे पर हंगामे, राहुल गांधी की संसद में वापसी और सबसे अधिक मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के कारण खबरों में रहा है।

लेकिन इन खबरों के शोर में कई जरूरी विधेयक सरकार ने आनन-फानन में पारित करवा लिए, इसकी खबर ही नहीं हुई। अब खबर आई है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के निर्णय का उल्लंघन करते हुए मोदी सरकार चुनाव आयोग पर पूर्ण कब्जे की तैयारी में है। दरअसल 2024 के चुनाव से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की शक्ति अपने हाथ में लेने के लिए सरकार नया विधेयक ला रही है। प्रस्तावित विधेयक में मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया के पैनल से मुख्य न्यायाधीश का नाम हटाया गया है।

विधेयक में तीन सदस्यीय पैनल में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सरकार के एक मनोनीत मंत्री हैं, मतलब साफ है कि मोदी सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्तों की नियुक्ति का संतुलन पूरी तरह अपने पक्ष में करना चाहती है। जबकि इससे पहले शीर्ष अदालत ने मार्च 2023 में कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्तों की नियुक्तिराष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश की समिति की सिफारिश पर की जाएगी। न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एक सर्वसम्मत फैसले में कहा था कि यह मानक तब तक लागू रहेगा जब तक कि इस मुद्दे पर संसद द्वारा कानून नहीं बनाया जाता। लेकिन सरकार के इस ताजा कदम से यही अंदेशा होता है कि अब चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्था को मोदी सरकार अपने इशारों पर चलाने की बदनीयत रखती है।

इससे पहले प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप मोदी सरकार पर सैकड़ों बार लगे। सरकार के पास इन्हें नकारने के लिए कोई संतोषजनक जवाब हैं भी नहीं। वैसे भी मोदी सरकार में जवाबदेही की परंपरा खत्म हो चुकी है। यहां सवाल के बदले या तो आरोप लगाए जाते हैं या फिर पुरानी बातों को उखाड़ कर नए सिरे से पेश किया जाता है। मणिपुर की गंभीर समस्या पर देश देख रहा है कि किस तरह सरकार जवाब देने में आनाकानी करती रही, प्रधानमंत्री मोदी संसद में आने से बचते रहे तो मजबूरन इंडिया को अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा।

मंगलवार से अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरु हुई और प्रधानमंत्री मोदी गुरुवार को संसद पहुंचे। उन्हें गुमान है कि बहुमत के कारण उनकी सरकार का कोई बिगाड़ नहीं हो सकता। लेकिन जिस पद पर वे बैठे हैं, वहां उन्हें बिगाड़ से ज्यादा ईमान की फिक्र करना चाहिए।प्रधानमंत्री से पहले उनकी सरकार के बाकी मंत्री अविश्वास प्रस्ताव पर जो कुछ कहते रहे, उसमें मणिपुर की बात कम और अपनी सरकार की, प्रधानमंत्री की वाहवाही अधिक थी। क्या इस देश के लोगों ने भाजपा को बहुमत इसलिए दिया था कि वह देश में शांति और स्थिरता की बात छोड़कर अपनी तारीफें करती रहे।

क्या भाजपा को या नरेन्द्र मोदी को अपने कामों पर इतना भरोसा नहीं है कि तारीफ का जिम्मा वो जनता पर छोड़ दें। 2014 के बाद 2019 में भी जनता को लगा कि भाजपा ही देश के लिए ठीक है, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर फिर से नरेन्द्र मोदी को ही बैठना चाहिए तो उसने फिर से भाजपा के पक्ष में वोट किया। अब 2024 की बारी है। लेकिन अब शायद नरेन्द्र मोदी और भाजपा का विश्वास डगमगाने लगा है। इसलिए प्रधानमंत्री संसद में आने से कतराते रहे, विपक्ष के सवालों का सामना करने से बचते रहे। और अब ऐसा विधेयक लाने जा रहे हैं, जिससे निष्पक्ष चुनाव की संभावनाएं ही खत्म हो जाएंगी।

चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में पारदर्शिता और निष्पक्षता रहे, इसलिए शीर्ष अदालत ने प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के अलावा भारत के मुख्य न्यायाधीश के नाम को समिति में रखना तय किया था। इससे चयन प्रक्रिया में जरूरी संतुलन बना रहता। मगर अब तो यह फैसला एकतरफा ही रहेगा। अगर विधेयक कानून बन गया तो नेता प्रतिपक्ष समिति में अकेला पड़ जाएगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के साथ उनकी कैबिनेट का कोई मंत्री समिति में शामिल होगा। इस तरह नेता प्रतिपक्ष के फैसले का कोई महत्व ही नहीं रहेगा। यूं भी अब पंच परमेश्वर वाला जमाना तो रहा नहीं, जहां फैसला करने की आसंदी पर बैठे इंसान से पूरी निष्पक्षता की उम्मीद की जाए। केबिनेट मंत्री हर हाल में प्रधानमंत्री की राय के साथ ही जाएगा, नेता प्रतिपक्ष के साथ नहीं। इस विधेयक के जरिए मोदी सरकार ने अपनी मनमानी प्रवृत्ति को खुलकर जाहिर कर दिया है। सरकार के इस रवैये से अब डरने और सावधान होने की जरूरत है। क्योंकि अब तक लोकतंत्र के नाम पर जो थोड़ी बहुत पर्देदारी थी, वो सब खत्म हो चुकी है।

सरकार अपने इरादों को सरेआम प्रकट कर रही है। अब इसके बाद एक ही चीज बची है। सरकार एक ऐसा विधेयक और ले आए, जिसमें केवल चुनाव आयुक्त ही नहीं, भारत के मुख्य न्यायाधीश, नेता प्रतिपक्ष, राज्यों के मुख्यमंत्री सब का चयन सरकार ही करेगी और ये फैसला भी सरकार लेगी कि कौन वोट देगा, कौन नहीं। इसके बाद लोकतंत्र की जननी जैसे जुमलों की जुगाली की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है, ये भी लोग भूल ही जाएंगे।

वैसे भी लोगों की याददाश्त अब कुंद हो चुकी है। 9 साल पहले किए गए वादों का हिसाब जब जनता नहीं ले रही तो लोकतंत्र के बारे में प्रधानमंत्री ने कब, क्या कहा, ये भी क्यों याद रखेगी। वैसे कांग्रेस ने इस विधेयक का पुरजोर विरोध किया है। के सी वेणुगोपाल ने कहा है कि चुनाव आयोग को पूरी तरह से प्रधानमंत्री के हाथों की कठपुतली बनाने का प्रयास है। अरविंद केजरीवाल ने भी कहा है कि प्रधानमंत्री का संदेश साफ है कि सुप्रीम कोर्ट का जो आदेश उन्हें पसंद नहीं आएगा, उसे वो संसद में कानून लाकर पलट देंगे। विपक्ष के इन बयानों से जाहिर है कि उसे भाजपा की चालाकी समझ आ रही है। लेकिन सवाल ये है कि इस चालाकी का तोड़ विपक्ष कैसे निकालेगा। अभी 2024 के चुनाव में साल भर का वक्त है। इंडिया के पास तैयारियों के लिए अधिक समय नहीं है। अगर अभी से अपने सारे छोटे मोटे मतभेदों को किनारे कर इंडिया एकजुट होकर चुनाव में खड़ा होगा, तभी लोकतंत्र के बचने की कोई उम्मीद दिखेगी।

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