मोदी सरकार सत्ता सुख पाने की आस संजो रही थी। लेकिन दो मई, उम्मीद नई!

पिछले दो महीनों से देश में चुनावी लहर और कोरोना का कहर, एक साथ चल रहे थे। केंद्र की सत्ता पर बैठी मोदी सरकार ने आदतन चुनावों को प्राथमिकता दी और महामारी से उत्पन्न संकट की उपेक्षा की
पिछले दो महीनों से देश में चुनावी लहर और कोरोना का कहर, एक साथ चल रहे थे। केंद्र की सत्ता पर बैठी मोदी सरकार ने आदतन चुनावों को प्राथमिकता दी और महामारी से उत्पन्न संकट की उपेक्षा की। देश को सदी की सबसे भयावह त्रासदी में धकेलकर भी भाजपा सत्ता सुख पाने की आस संजो रही थी। लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में तीन में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है। चुनावों में एक दल या गठबंधन की हार और दूसरे की जीत होना स्वाभाविक है। और कुछ बरस पहले तक विधानसभा चुनावों में केंद्र सरकार न इतनी दिलचस्पी लेती थी, न राज्यों में हार या जीत केंद्र में सत्तारूढ़ दल के लिए प्रतिष्ठा का सवाल हुआ करती थी। लेकिन सात बरसों में देश में बहुत कुछ बदल गया है। पंचायत चुनाव, नगरीय निकायों के चुनावों से लेकर विधानसभा चुनावों तक हर जगह भाजपा अपना दबदबा चाहती है और इसके लिए केंद्र की सत्ता का साधिकार उपयोग करती है।
हाल में संपन्न पांच राज्यों के चुनावों में भी यही हुआ। प.बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुड्डुचेरी के चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने अपनी सारी ताकत झोंक दी। खासकर प.बंगाल में तो माहौल ऐसा बन गया कि एक ओर ममता बनर्जी थीं और दूसरी ओर पूरी केंद्र सरकार के अलावा, भाजपा के मुख्यमंत्रियों समेत कई दिग्गज नेता, और सरकारी जांच एजेंसियां भाजपा को जिताने के लिए जोर लगा रही थीं। चुनाव आयोग ने जिस तरह आठ चरणों में चुनाव करने का फैसला लिया, उसे भी भाजपा के समर्थन में माना जा रहा था।
माननीय प्रधानमंत्री मोदी ने दीदी ओ दीदी को निर्लज्ज तरीके से बोलने के साथ, जय श्रीराम का नारा प.बंगाल में बुलंद किया। गलत उच्चारण के साथ बांग्ला में दो चार शब्द बोलकर वे प.बंगाल को ये भरोसा देते नजर आए कि बंगाल को सुशासन और विकास देंगे। इससे पहले शायद ही कभी बंगाल के चुनाव में दुर्गा पूजा के पंडालों का इस्तेमाल हिंदुत्व की ताकत दिखाने के लिए किया गया। मगर मोदीजी के शासन में यह भी मुमकिन हो गया। फर्क इतना ही रहा कि सांप्रदायिकता के इस कथानक को बंगाल की जनता ने हरा दिया।
तृणमूल कांग्रेस ने बहुमत हासिल कर तीसरी बार सत्ता पर बैठने की तैयारी कर ली। हालांकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर आ रही है कि ममता बनर्जी शुभेंदु अधिकारी से नंदीग्राम में हार गईं। टीएमसी इस हार पर सवाल उठा रही है, इसकी असलियत का खुलासा पूरे नतीजे आने के बाद ही होगा। वामपंथ और कांग्रेस इस बार पहले से अधिक निराशाजनक स्थिति में आए और अब इन दलों को आत्ममंथन की सलाह के अलावा और कुछ नहीं दिया जा सकता।
वामदलों के लिए राहत की बात ये है कि पिनराई विजयन के नेतृत्व में एलडीएफ फिर सरकार बनाएगी और नया इतिहास रचेगी। भाजपा केरल में शून्य पर सिमट गई और मेट्रोमैन श्रीधरन जीवन के इस पड़ाव पर अनावश्यक फैसले का शिकार हो गए। राहुल गांधी को केरल में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी, लेकिन उनकी लोकप्रियता और अपने संसदीय क्षेत्र में निरंतर सक्रियता कुछ काम न आ सकी। कांग्रेस को अपनी रणनीतियों और साथियों के चयन पर पुनर्विचार की सख्त आवश्यकता है। केरल में वामदल आपके विरोधी हैं और प.बंगाल में आपके सहयोगी हैं, ये बात आम मतदाता को भ्रमित कर जाती है।
असम में कांग्रेस गठबंधन को अपनी जीत की काफी उम्मीदें थीं। परिणामों के बाद विधायकों की संभावित खरीद-फरोख्त से बचने की तैयारी भी कांग्रेस ने कर ली थी। लेकिन परिणाम इसके उलट आए और भाजपा को जीत हासिल हुई। कांग्रेस ने बदरूद्दीन अजमल के साथ गठबंधन किया और भाजपा इस आधार पर हिंदू वोटों का धु्रवीकरण करने में सफल रही। यही चाल सीएए पर भी भाजपा ने चली और बचाव की मुद्रा में आने की जगह इसे असमिया लोगों की अस्मिता के सवाल के साथ जोड़ा, जिसका फायदा उसे मिला। मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की छवि और उनके जनहितैषी काम भी भाजपा की जीत का सबब बने। कांग्रेस एक बार फिर जमीनी हकीकत को पहचानने में विफल दिखी।
तमिलनाडु में स्टालिन के नेतृत्व में डीएमके गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की है। कांग्रेस ये सोचकर खुश हो सकती है कि इस जीत में वह भी सहभागी है। भाजपा ने अब तक सत्तारूढ़ एआईएडीएमके के साथ गठजोड़ कर इस दक्षिण राज्य में सत्ता का स्वाद चखना चाहा था, लेकिन फिलहाल उसकी ये कामना पूरी नहीं हो सकी। अलबत्ता पुड्डूचेरी में चुनावों के ऐन पहले किरण बेदी को उपराज्यपाल पद से हटाना और फिर कांग्रेसनीत गठबंधन की सरकार को अल्पमत में ले आना, उसके लिए सही दांव साबित हुआ।
कुल मिलाकर इन नतीजों से यही साबित होता है कि इस बार जनता ने खोखले भावनात्मक मुद्दों की जगह अपनी बेहतरी से जुड़े मुद्दों को तरजीह दी। भाजपा और मोदीजी को एक बार फिर ये अहसास कराया कि वे अजेय नहीं हैं। देश न कांग्रेसमुक्त हुआ है, न विपक्षमुक्त हुआ है। अगर भाजपा सत्ता की ताकत और पूंजीपतियों के धनबल के इस्तेमाल के बावजूद हारती है तो इसका मतलब यही है कि इस देश में लोकतंत्र अभी सांसें ले रहा है। आक्सीजन की कमी से जूझते देश में दो मई को यह नई उम्मीद मिली है।