चीफ़ जस्टिस बोबडे की विरासत को कैसे याद किया जाएगा


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इससे पहले जस्टिस गोगोई का कार्यकाल का ख़ासा चर्चित और विवादित रहा, उनके कई फ़ैसलों की आलोचना हुई और पद से रिटायर होते ही राज्यसभा में भेजे जाने को लेकर नैतिकता से जुड़े सवाल उठे.
उनके बाद आए जस्टिस शरद अरविंद बोबडे के करीब डेढ़ साल के कार्यकाल में कई अहम फ़ैसले आए, कई बड़े मामले अभी अधर में लटके हैं.
जस्टिस बोबडे के कार्यकाल को लेकर लोगों के विचारों में वैसा ही ध्रुवीकरण दिखता है, जैसा इन दिनों देश में हर राजनीतिक मामले पर दिखता है. यानी लोग या तो उनकी तारीफ़ करते हैं या उनकी आलोचना करते हैं, संतुलित राय कम ही सुनने को मिलती है.
उसी ध्रुवीकरण की एक मिसाल दशकों कानूनी मामलों की रिपोर्टिंग करने वाले वरिष्ठ पत्रकार राकेश भटगार की यह टिप्पणी है, “तबाही के इस दौर में अगर भारत की जनता के लिए एक छोटी-सी अच्छी चीज़ हुई है तो वो ये कि भारत के मुख्य न्यायाधीश रिटायर हो गए हैं”.
बीबीसी से बातचीत में भटनागर ने कहा, “बोबडे ने 18 महीने के अपने कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट की आस्था को जितना नुकसान पहुंचाया है, मुझे नहीं लगता किसी और चीफ़ जस्टिस ने ऐसा किया होगा. उनके कार्यकाल में जनता का अदालत पर विश्वास बहुत कम हो गया. ऐसा लगने लगा कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट, दोनों का सोचने का जो ढंग है, वो एक ही है.”

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दशकों से सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहीं वकील इंदिरा जयसिंह ने बीबीसी से कहा, “मुख्य न्यायाधीश बोबडे वकीलों के एक प्रसिद्ध परिवार से आते हैं, वे पांचवीं पीढ़ी के हैं, उनकी बेटी अपने परिवार की छठी पीढ़ी की वकील हैं. विरासत की वजह से विशेषाधिकार की समस्याएं होती हैं जो अब कानूनी पेशे में जड़ें जमा चुकी है. जब वो भारत के मुख्य न्यायाधीश बने और 18 महीने तक इस पद पर रहे, उनसे बहुत उम्मीद की जा रही थी.”
मानवाधिकार और संवैधानिक मामलों के बड़े मुकदमे लड़ने वाली इंदिरा जयसिंह कहती हैं, “मेरी राय में, देश में परिस्थितियों को देखते हुए, जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी, लेकिन हमने ऐसा नहीं देखा, उनके नेतृत्व में हमने नहीं देखा कि अदालत के पास जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर एक सुसंगत नीति है”.
इसकी मिसाल देते हुए इंदिरा जयसिंह कहती हैं, “अदालत के पास जाने वाले छात्रों को इस आधार पर हटा दिया गया कि वे हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएँ, दूसरी तरफ़, अपने कार्यकाल के आखिरी दिन उन्होंने महामारी पर दायर की गई याचिका की सुनवाई इस बात की परवाह किए बिना की कि ये मामला पहले से ही कई हाइ कोर्टों में चल रहा है.”
सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने वाले कुछ वकीलों का कहना है कि इलेक्टोरल बॉण्ड को दी गई चुनौती के मामले में जस्टिस बोबडे ने टाल-मटोल किया और अंत में ये फैसला सुनाया कि ये मामला वर्षों से चला आ रहा है इसलिए इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती.

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हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट की आज़ादी पर सवाल खड़े होने लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट के कुछ विवादास्पद फैसलों के कारण, जस्टिस रंजन गोगोई के 13 महीने के कार्यकाल (2018-2019) से ही ये इल्ज़ाम लगाया जाने लगा था कि देश की सबसे ऊँची अदालत केंद्रीय सरकार का पक्ष लेने लगी है.
सुप्रीम कोर्ट की कथित तौर पर कमज़ोर पड़ती निष्पक्षता और आज़ादी की बात उठाने वालों में से एक वकील प्रशांत भूषण हैं जिन्होंने अंग्रेजी के दैनिक अख़बार ‘द हिन्दू’ में जस्टिस बोबडे के कार्यकाल पर एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने नयायमूर्ति बोबडे के कई फैसलों को याद करते हुए उन पर सवाल उठाए हैं.

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बीबीसी से बातें करते हुए प्रशांत भूषण उनके कार्यकाल पर मायूसी का इज़हार करते हैं, “इस देश में क़ानून का राज फिर से स्थपित करना, आने वाले न्यायमूर्ति की सब से बड़ी चुनौती होगी.”
जस्टिस बोबडे और प्रशांत भूषण का सुप्रीम कोर्ट में आमना-सामना काफ़ी चर्चित रहा था, जस्टिस बोबडे ने अपने किसी मित्र की हार्ले डेविडसन बाइक पर बैठकर तस्वीर खिंचाई थी, इस तस्वीर पर टिप्पणियाँ करते हुए प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया था, उनके ट्वीट के आधार पर उनके ख़िलाफ़ अदालत की अवमानना का मुकदमा चला था, जिसमें भूषण के ऊपर एक रुपए का जुर्माना लगाया गया था.
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इसके अलावा, जस्टिस बोबडे के कार्यकाल का एक और चर्चित मामला स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा से जुड़ा था, कामरा के ट्वीट्स के आधार पर उन पर अदालत की अवमानना का मुकदमा चलाने का फ़ैसला दिसंबर 2020 में किया गया था, इस मामले में कामरा ने माफ़ी माँगने से इनकार करते हुए एक हलफ़नामा दायर किया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट के हाल पर कई टिप्पणियाँ की गई थीं.
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कोरोना काल के चीफ़ जस्टिस
यह सच है कि जस्टिस बोबडे के कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा कोरोना महामारी की छाया तले गुज़रा और वे महामारी के बीच में ही रिटायर हो गए.
सुप्रीम कोर्ट के वकील कुमार मिहिर शुक्ल कहते हैं कि जस्टिस बोबडे के कार्यकाल को महामारी के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा, वो जस्टिस बोबडे की इस बात के लिए प्रशंसा करते हैं कि उन्होंने महामारी से जूझने के लिए अदालत और उसकी कार्रवाइयों को बहुत कम समय में ऑनलाइन कर दिया.
उन्होंने बीबीसी से कहा, “प्रशासनिक मामलों में उन्होंने अच्छा काम किया है, इस बात का श्रेय उन्हें जाना चाहिए.”
इंदिरा जयसिंह ये स्वीकार करती हैं कि जस्टिस बोबडे के कार्यकाल में वर्चुअल अदालती कार्रवाई का दौर शुरू हुआ जिसे बेहतर बनाया जा सकता है लेकिन उनके छोटे से कार्यकाल में ऐसा करना शायद कठिन था.

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अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन अधिनियम
65 वर्षीय जस्टिस बोबडे के कार्यकाल (नवंबर 2019-अप्रैल 2021) में देश को कोविड-19 की दो घातक लहरों का सामना करना पड़ा, जिसके दौरान लॉकडाउन और अनेक प्रतिबंधों के बीच अदालतों के काम में कई तरह की चुनौतियाँ सामने आईं, लेकिन महामारी से पहले उनके सामने दो महत्वपूर्ण मामले आए–आर्टिकल 370 हटाए जाने और नागरिक संशोधन कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ दर्जनों याचिकाएँ.
वरिष्ठ वकील कुमार मिहिर शुक्ल कहते हैं कि वे जस्टिस बोबडे से इस बारे में मायूस हुए. वो कहते हैं, “नवंबर 2019 से मार्च 2020 तक देश में कुछ अहम मुद्दे थे, जैसे कि आर्टिकल 370 और सीएए के मामले लिस्टेड थे लेकिन उन पर सुनवाई नहीं हुई, जो निराशाजनक था क्योंकि ये मामले संविधान से जुड़े हुए थे
इन दो मामलों पर जस्टिस बोबडे की उस समय भी काफ़ी आलोचना हुई थी और कहा जाने लगा था कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ जाने में हिचकिचा रही है. उदाहरण के तौर पर नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को चुनौती देने वाली 140 से अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लगभग एक साल लंबित रहीं.
याचिकाकर्ताओं में से एक कांग्रेस पार्टी के सांसद जयराम रमेश ने उस समय कहा था, “मैं बहुत निराश हूँ और मामले को जल्द से जल्द सुनवाई के लिए उठाया जाना चाहिए.”
इंदिरा जयसिंह कहती हैं, “उनके आलोचक कहते हैं कि उन्होंने (जस्टिस बोबडे) सीएए और अनुच्छेद 370 को चुनौती देने वाले अहम मुकदमों पर सुनवाई के लिए उन्हें पोस्ट न करके इन मामलों को ख़त्म कर दिया.”

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लॉकडाउन और मज़दूरों का पलायन
इसके बाद महामारी शुरू हुई और देश भर में लॉकडाउन लग गया जिसके कारण करोड़ो मज़दूरों ने अपने घरों को पलायन करना शुरू कर दिया. उस समय ऐसा लगा कि अचानक लगाए गए लॉकडाउन से रोज़ाना दिहाड़ी करने वालों पर क्या असर पड़ेगा, सरकार ने इनके बारे में सोचा ही नहीं था.
मज़दूरों को उनके बुनियादी हक़ दिलाने के लिए कई लोगों ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया लेकिन जस्टिस बोबडे के वो असंवेदनशील शब्द मज़दूरों के कानों में आज भी गूंजते हैं जिसमे उन्होंने कहा था कि “जब इन मज़दूरों को खाना मिल रहा है तो इन्हें पैसों की क्या ज़रुरत.”
कुमार मिहिर कहते हैं, “ऐसे बयान की ज़रुरत नहीं थी लेकिन हो सकता है कि उस समय उनके पास सही डेटा न हो, इसलिए उन्हें संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए.”
प्रशांत भूषण ने अपने लेख में कहा, “ये कहना ग़लत नहीं होगा कि हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति अदालत की अमानवीयता और उदासीनता अपने चरम पर पहुँच गई.”

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सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का मामला
जस्टिस बोबडे के दौर में सुप्रीम कोर्ट में एक भी नए न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं हुई जबकि 6-7 जजों के पद ख़ाली पड़े हैं. इस पर कुमार मिहिर शुक्ल कहते हैं, “वो सुप्रीम कोर्ट के एक जज की भी नियुक्ति नहीं कर सके, शायद इसलिए कि वो कॉलेजियम के सभी सदस्यों की रज़ामंदी हासिल न कर सके, या हो सकता है कि महामारी के कारण ये संभव नहीं हो सका.”
सुप्रीम कोर्ट में इस समय जजों के एक चौथाई पद ख़ाली हैं, जिसका मतलब ये हुआ कि हर दिन दर्जनों मामलों की सुनवाई नहीं हो पा रही है. लेकिन कुमार मिहिर इस बात से थोड़े संतुष्ट नज़र आए कि हाई कोर्टों में उन्होंने कुछ जजों की नियुक्ति की है.
अगले चीफ़ जस्टिस की चुनौतियाँ
इंदिरा जयसिंह के विचार में नए न्यायधीश की सबसे बड़ी चुनौती होगी अदालत पर लोगों के भरोसे को दोबारा से बहाल करना.
वो कहती हैं, “किसी भी आने वाले मुख्य न्यायाधीश को आगे बढ़कर नेतृत्व करना होगा और इस धारणा को दूर करना होगा कि अदालत देश के मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में नाकाम हो गई है, विशेष रूप से जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार. अधिनायकवादी दौर में संतुलन के लिए एक मजबूत न्यायपालिका की आवश्यकता होती है, जो राज्य और नागरिक के बीच में होती है, एक ऐसी न्यायपालिका जो सरकार के मनमाने कृत्यों के ख़िलाफ़ खड़ी हो सकती है”.

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वो कहती हैं, “व्यक्तिगत स्तर पर जस्टिस बोबडे संवाद करते थे और सहज थे और उनसे खुलकर बात करना आसान था. हमें लगता था कि वो हम में से ही एक हैं. उन्हें अपने कार्यालय की महानता का कोई भ्रम नहीं था, फिर भी उनके निर्णय दृढ़ और कठिन थे. वो अपने पीछे कुछ मुकदमे अधूरे छोड़कर जा रहे हैं, जैसे कि महामारी का केस और कृषि बिल के ख़िलाफ़ मुकदमे.”
वो आगे कहती हैं, “वह अदालत में पांच रिक्तियों को इस उम्मीद के साथ छोड़कर जा रहे हैं कि एक दिन हम भारत की एक महिला मुख्य न्यायाधीश देखेंगे, ये महज़ एक टोकन हो सकता है क्योंकि महिला जजों की संख्या कम हुई है लेकिन उन्होंने इसकी कोशिश ज़रूर की.”
प्रशांत भूषण और कुमार मिहिर शुक्ल भी ये स्वीकार करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के नए न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना के सामने कई चुनौतियाँ होंगी.