कोरोना महामारी में प्रचार की जगह काम की जरूरत

जब परिस्थितियां असाधारण हों, तो फैसले भी असाधारण ही लेने पड़ते हैं, तभी जिंदगी पटरी पर आ पाती है
जब परिस्थितियां असाधारण हों, तो फैसले भी असाधारण ही लेने पड़ते हैं, तभी जिंदगी पटरी पर आ पाती है। अफसोस कि भारत में सत्ताधीश कोरोना के कठिन समय में इस सिद्धांत की अनदेखी कर रहे हैं। कोरोना की दूसरी लहर को आए अब कई दिन बीत चुके हैं और हर गुजरते दिन के साथ लोगों की परेशानियां कुछ और बढ़ती जा रही हैं। इस समय उन्हें तत्काल मदद और राहत के उपायों की जरूरत है, लेकिन सरकारें अब भी बैठकें कर जनता को ये भरोसा देने में लगी हैं कि वो उसके हित के बारे में सोच रही हैं।
दुष्यंत कुमार ने लिखा था- भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ। कुछ ऐसे ही हाल इस वक्त कोरोना की आपदा से निपटने के उपायों को लेकर भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने प.बंगाल की रैलियों के दिन बदल कर ये बतलाने की कोशिश की कि वे भी जनता की परवाह करते हैं। इसलिए 24 को नहीं 23 को रैली करेंगे। ममता बनर्जी ने भी अपने चुनावी कार्यक्रमों में कुछ कटौती की। टीएमसी ने एक बार फिर निर्वाचन आयोग से मांग की है कि तीन चरणों के चुनावों को समेटा जाए। आयोग इस पर क्या फैसला लेगा, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता। मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा भी कोरोना ग्रसित हो गए हैं।
इधर राहुल गांधी, सोनिया गांधी मोदी सरकार को लगातार सही सुझाव दे रहे हैं, हालांकि सरकार उन पर कुछ दिनों बाद अपने तरीके से अमल कर रही है। इस बीच पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने भी प्रधानमंत्री मोदी को चिठ्ठी लिखकर टीकाकरण को लेकर कुछ सुझाव दिए थे। इस खत के जवाब में स्वास्थ्य मंत्री डॉ.हर्षवर्धन ने उन्हें खत लिखकर बिंदुवार तरीके से आरोप लगाते हुए डॉ मनमोहन सिंह को कहा है कि आप जिस रचनात्मक सहयोग की सलाह दी है, अच्छा होता कि आपकी कांग्रेस पार्टी के नेता भी उसे गंभीरता से मानते। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की इस जवाबी चिठ्ठी से जाहिर होता है कि केंद्र सरकार इतनी अहंकारी हो चुकी है कि उसे किसी की सही बात भी बर्दाश्त नहीं होती और लगभग अशिष्ट तरीके से वह पूर्व प्रधानमंत्री को जवाब देने में अपनी शान समझती है। डॉ.मनमोहन सिंह ने चिठ्ठी मोदीजी को लिखी थी, तो जवाब भी प्रधानमंत्री की ओर से आना चाहिए था। लेकिन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने उनकी जगह जवाब देकर ये बता दिया कि सरकार हर बात में अपनी मनमानी करना चाहती है।
इस बीच फिर से लॉकडाउन लगाने का सवाल भी देश में उठने लगा, जिसके जवाब में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने ये जिम्मा राज्यों पर छोड़ दिया। दिल्ली में सप्ताहांत के कर्फ्यू के बाद एक सप्ताह के लॉकडाउन की घोषणा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने की। इसके साथ ही उन्होंने प्रवासी मजदूरों से वापस न लौटने की अपील भी की। हालांकि उनकी इस अपील का खास असर होते नहीं दिखा। दिल्ली सरकार को कायदे से पहले इन मजदूरों के लिए रहने और खाने की मुफ्त व्यवस्था करनी चाहिए थी, ताकि इन्हें यकीन होता कि पिछले साल की तरह इन्हें न बेघर होना पड़ेगा, न भूखे पेट रहना पड़ेगा। लेकिन सरकार प्रवासी कामगारों को ये भरोसा दिलाने में नाकाम रही और अब पुलिस की सख्ती के साथ बस अड्डों पर भीड़ को नियंत्रित करना पड़ रहा है।
उत्तरप्रदेश में भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पांच शहरों में लॉकडाउन के आदेश दिए थे, जिसे मानने से योगी सरकार ने इंकार कर दिया और उस फैसले के खिलाफ अपील की, जिसमें फिलहाल योगी सरकार को राहत मिली है। योगीजी का कहना है कि लॉकडाउन से गरीबों को परेशानी होती है। काश भाजपा को ये अहसास पिछले साल हो गया होता तो देश के लाखों मजदूरों को तपती गर्मी में पैदल सैकड़ों-हजारों किमी नहीं चलना पड़ता।
कोरोना से बचाव में नियमों की सख्ती के साथ टीकाकरण की भी अहम भूमिका है। सरकार ने बड़े जोर-शोर से इसकी शुरुआत की थी, लेकिन जल्द ही इसकी खामियां नजर आने लगी हैं। टीकों की कमी देश में हो रही है। इस बीच एक आरटीआई से ज्ञात हुआ है कि 11 अप्रैल तक देश के कई राज्यों में कुल टीकों का करीब 23 फीसदी बर्बाद कर दिया गया। इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार लोगों पर क्या कभी कोई सख्ती बरती जाएगी, ये बड़ा सवाल है। सरकार ने दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान में पहले स्वास्थ्यकर्मियों और बुजुर्गों को प्राथमिकता दी थी, फिर 45 साल से ऊपर के लोग भी इसमें शामिल किए गए औऱ अब 18 साल से ऊपर के लोगों को वैक्सीन लगेगी, ऐसा फैसला लिया गया है।
लेकिन इसके लिए वैक्सीन की आपूर्ति भी जरूरी है। केंद्र सरकार ने भारत में टीका बनाने वाली कंपनियों सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक को दो महीने का 100 फीसदी एडवांस का भी भुगतान कर दिया है। खबरों के मुताबिक, केंद्र सरकार ने दोनों कंपनियों को कुल 4 हजार 500 करोड़ रुपये की राशि का भुगतान किया है। कोविशिल्ड का उत्पादन करने वाले सीरम इंस्टीट्यूट के लिए 3,000 करोड़ और कोवैक्सिन का उत्पादन करने वाले भारत बायोटेक के लिए 1500 करोड़ दिए गए हैं। इधर आम आदमी के इलाज के लिए सेना के अस्पताल खोलने जैसी पहलें भी हो रही हैं। इन सब कदमों का सही असर पड़ सकता है, बेशक इनके क्रियान्वयन में प्रचार से ज्यादा नीयत को तवज्जो दी जाए। आक्सीजन एक्सप्रेस के साथ विशालकाय फोटो छपवाने या शव वाहनों के साथ फोटो खिंचवाने की प्रचारप्रिय प्रवृत्ति को इस वक्त रोकना होगा।