ममता का पत्र और पीके का दावा, क्या हैं वाराणसी में मोदी को घेरने की घोषणा के मायने?
नई दिल्ली
.ममता बनर्जी ने भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण के दांव की काट के लिए कई चालें चलीं
.हिंदू ध्रुवीकरण रोकने के लिए ममता बनर्जी ने चला महिला और बंगाली अस्मिता का कार्ड
ममता बनर्जी द्वारा विपक्ष के नेताओं को भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने के लिए लिखा गया पत्र क्या महज पश्चिम बंगाल के चुनावों में गैर भाजपा मतदाताओं को तृणमूल कांग्रेस की ओर खींचने की महज एक चाल है या ममता वाकई राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक सशक्त विकल्प बनाने के प्रति गंभीर हैं। भाजपा ममता के पत्र को उनकी संभावित हार का डर बता रही है, लेकिन दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर पार्टी की जीत और भाजपा की सीटें किसी भी हालत में सैकड़ा न पार करने को लेकर अपने वचन पर जिस तरह डटे हुए हैं, उससे इस पत्र को ममता की भावी रणनीति का एक दांव माना जाना चाहिए।
फिलहाल, ममता की इस अपील पर अभी तक कांग्रेस या किसी भी दूसरे गैर भाजपा दल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। न किसी ने इसका स्वागत और समर्थन किया और न ही किसी ने इसे खारिज किया, लेकिन कांग्रेस का संत चेहरा माने जाने वाले आचार्य प्रमोद कृष्णम ने जरूर ममता की चिट्ठी का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि सभी विपक्षी दलों को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अब सवाल है कि आखिर बंगाल में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ममता की हार व भाजपा की तूफानी जीत की चुनावी भविष्यवाणी कर रहे हैं, तब तृणमूल कांग्रेस, ममता बनर्जी और उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर यानी पीके अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त क्यों हैं। आखिर वो कौन से जमीनी तथ्य हैं जो उन्हें न सिर्फ भाजपा के सशक्त चुनावी तंत्र, अकूत संसाधन और मोदी-शाह जैसी आक्रामक प्रचार वाली सियासी जोड़ी के सामने अकेले ममता बनर्जी को मजबूती से न सिर्फ जमाए हुए हैं, बल्कि उनमें जीत की उम्मीद भी बरकरार रखे हैं।
ममता बनर्जी द्वारा विपक्ष के नेताओं को भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने के लिए लिखा गया पत्र क्या महज पश्चिम बंगाल के चुनावों में गैर भाजपा मतदाताओं को तृणमूल कांग्रेस की ओर खींचने की महज एक चाल है या ममता वाकई राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक सशक्त विकल्प बनाने के प्रति गंभीर हैं। भाजपा ममता के पत्र को उनकी संभावित हार का डर बता रही है, लेकिन दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर पार्टी की जीत और भाजपा की सीटें किसी भी हालत में सैकड़ा न पार करने को लेकर अपने वचन पर जिस तरह डटे हुए हैं, उससे इस पत्र को ममता की भावी रणनीति का एक दांव माना जाना चाहिए।
फिलहाल, ममता की इस अपील पर अभी तक कांग्रेस या किसी भी दूसरे गैर भाजपा दल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। न किसी ने इसका स्वागत और समर्थन किया और न ही किसी ने इसे खारिज किया, लेकिन कांग्रेस का संत चेहरा माने जाने वाले आचार्य प्रमोद कृष्णम ने जरूर ममता की चिट्ठी का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि सभी विपक्षी दलों को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अब सवाल है कि आखिर बंगाल में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ममता की हार व भाजपा की तूफानी जीत की चुनावी भविष्यवाणी कर रहे हैं, तब तृणमूल कांग्रेस, ममता बनर्जी और उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर यानी पीके अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त क्यों हैं। आखिर वो कौन से जमीनी तथ्य हैं जो उन्हें न सिर्फ भाजपा के सशक्त चुनावी तंत्र, अकूत संसाधन और मोदी-शाह जैसी आक्रामक प्रचार वाली सियासी जोड़ी के सामने अकेले ममता बनर्जी को मजबूती से न सिर्फ जमाए हुए हैं, बल्कि उनमें जीत की उम्मीद भी बरकरार रखे हैं।
तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकार और नेता मानते हैं कि भाजपा को लोकसभा चुनावों में जितनी सफलता मिली, उसकी कल्पना उन्होंने तब नहीं की थी। उसके बाद से ही भाजपा ने बंगाल में अपनी संभावनाएं देखीं और काम में जुट गई। तृणमूल नेता भी मानते हैं कि भाजपा के पक्ष में कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो चुनावों को प्रभावित कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, गृह मंत्री अमित शाह की रणनीति, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की मेहनत और संगठन क्षमता ने पार्टी को विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले में खड़ा कर दिया। इसके साथ ही भाजपा के पास अकूत संसाधन, राष्ट्रीय स्तर पर फैले उसके संगठन, कार्यकर्ताओं की ताकत, केंद्र में भाजपा की सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरा तंत्र भाजपा को ज्यादा मजबूती दे रहा है। फिर भाजपा का बंगाल की राजनीति में नया होना और जनता से बदलाव की अपील करते हुए एक मौका मांगना भी राज्य के एक वर्ग को आकर्षित कर रहा है। ऊपर से भाजपा और संघ परिवार ने लगातार ममता बनर्जी पर मुस्लिम परस्त होने का आरोप लगाते हुए हिंदू ध्रुवीकरण का तड़का भी लगाया है। इन तमाम हथियारों और रक्षा कवचों से लैस भाजपा ममता बनर्जी के किले को जीतने की पूरी कोशिश कर रही है।
इसके बावजूद तृणमूल कांग्रेस के मुख्य रणनीतिकार प्रशांत किशोर अगर ममता की जीत और तीसरी बार सरकार बनाने का दावा करने के साथ-साथ भाजपा की सीटें सौ से कम आने का दावा कर रहे हैं तो उसके उनके अपने तर्क और आधार हैं। प्रशांत के साथ-साथ बंगाल में गांव-गांव शहर-शहर घूमकर जमीनी रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से भी बात करने पर पता चलता है कि प्रचार युद्ध में भले ही भाजपा का पलड़ा भारी दिखता हो, लेकिन जमीन पर ममता बनर्जी की लोकप्रियता अभी अटूट है। उनका मूल जनाधार उनके साथ एकजुट है।
एक तरह से यह चुनाव ममता के साथ-साथ नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की भी कसौटी है, क्योंकि बंगाल में भाजपा के पास कोई स्थानीय चेहरा नहीं है और उसका सारा दारोमदार प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही टिका है। इसी वजह से बंगाल में प्रधानमंत्री की रैलियों की संख्या भी बढ़ा दी गई। हालांकि, पीके इसे भाजपा की कमजोरी का संकेत मानते हैं। उनका कहना है कि मोदी भाजपा के सबसे मजबूत और आखिरी हथियार हैं। जब कोई सेना अपने आखिरी और सबसे मजबूत हथियार का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने लगे तो समझना चाहिए कि उसे मैदान में हारने का खतरा है। उधर, भाजपा प्रवक्ता प्रेम शुक्ला के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय और भाजपा के सर्वोच्च नेता हैं। अगर वह अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए वक्त दे रहे हैं तो इसे भाजपा की कामयाबी की संभावना और बढ़ जाती है।
बंगाल में भाजपा तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के खिलाफ मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाते हुए हिंदू ध्रुवीकरण का हथियार इस्तेमाल कर रही है। भाजपा के हर नेता की कोशिश है कि बंगाल के चुनाव को तुष्टीकरण बनाम ध्रुवीकरण करके मैदान मार ले। इसके लिए पिछले कई साल से बंगाल में भाजपा ने जय श्रीराम का नारा बुलंद करते हुए ममता को लगातार चिढ़ाने का काम किया। वहीं, भाजपा के स्थानीय नेताओं ने ममता बनर्जी को ममता बेगम या ममता बानो के नाम से संबोधित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ममता विरोधी प्रचारतंत्र ने ममता बनर्जी के हिंदू मूल को भी सवालों के घेरे में उसी तरह खड़ा करने की कोशिश की, जैसी कोशिश जवाहर लाल नेहरू के पुरखों को कथित रूप से मुसलमान बताने का अभियान सोशल मीडिया पर चलाया जाता रहा है। भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने लगातार ममता पर मुस्लिम परस्ती का आरोप लगाते हुए उनके राज में हिंदुओं के कथित अपमान और असुरक्षा को मुद्दा बनाने की कोशिश की है। यहां तक चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चोटी और तिलक का मुद्दा उठाया। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर वह हिंदुओं को एकजुट होकर भाजपा को वोट देने को कहें तो चुनाव आयोग का नोटिस उन्हें आ जाएगा।
जमीनी राजनीति पर मजबूत पकड़ रखने वाली ममता बनर्जी ने भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण के दांव की काट के लिए कई चालें चली हैं। ममता ने खुद को ब्राह्मण बताकर, अपने कुल गोत्र शांडिल्य को सार्वजनिक करके, भाजपा के जय श्रीराम के नारे के जवाब में जय दुर्गा का जयकारा और चंडी पाठ के जरिए भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण के हथियार को भोथरा करने का दांव चला है। ममता का सीधा गणित है कि राज्य के तीस फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का अधिसंख्य थोक वोट तृणमूल को मिलना लगभग तय है। अब शेष 70 फीसदी गैर मुस्लिम मतदाताओं, जिनमें बहुसंख्यक हिंदू हैं, के तीस-चालीस फीसदी वोट मिल जाएं तो उनकी धमाकेदार जीत तय है। इसके लिए तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकारों ने खुद को भी भाजपा के बराबर हिंदू साबित करने की कोशिश की और राज्य के हिंदुओं के बीच भाजपा द्वारा गढ़ी गई तृणमूल व ममता की कथित हिंदू विरोधी छवि को ध्वस्त कर दिया।
भाजपा और संघ परिवार के हिंदू ध्रुवीकरण को रोकने के लिए ममता बनर्जी और उनके रणनीतिकारों ने महिला और बंगाली अस्मिता के कार्ड का दांव बखूबी चला। ममता ने खुद बंगाल की बेटी और भाजपा के तीनों शीर्ष नेताओं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह व भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को बाहरी बताते हुए वही दांव खेला, जो कभी मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी गुजरात में गुजराती अस्मिता का खेलते थे। उस वक्त वह कांग्रेस के शीर्ष नेताओं सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह व राहुल गांधी को बाहरी बताते थे और खुद को छह करोड़ गुजरातियों का एक मात्र प्रतिनिधि व गुजरात का बेटा बताकर भावनात्मक अपील करते थे।
अब ममता वही बंगाल में कर रही हैं। इसके अलावा ममता ने सबसे ज्यादा ध्यान राज्य की पचास फीसदी महिला मतदाताओं पर दिया। उनकी सरकार ने महिलाओं के कल्याण और सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएं लागू कीं, जिनका असर जमीन पर भी दिखता है। ममता ने महिलाओं को यह संदेश भी देने की कोशिश की कि वह पूरे देश में एक अकेली महिला मुख्यमंत्री हैं और भाजपा उन्हें भी हटाना चाहती है। तृणमूल रणनीतिकारों का मानना है कि महिलाओं को साथ लेने से एक तरफ हिंदू ध्रुवीकरण का भाजपाई दांव कमजोर होगा। साथ ही, जाति और धर्म के ऊपर उठकर एक बड़ा मतदाता वर्ग तृणमूल के साथ आकर ममता की जीत का रास्ता खोलेगा। तृणमूल के एक शीर्ष रणनीतिकार के मुताबिक, मुस्लिम और महिला (डबल एम) का एक मुश्त समर्थन ही ममता को जिताने के लिए काफी है। अगर इसमें बंगाली अस्मिता और दलित आदिवासियों के लिए किए गए काम का समर्थन भी जुड़ गया तो तृणमूल की जीत धमाकेदार होगी।
चुनाव प्रबंधन और रणनीति में देश में नंबर एक ब्रांड बन चुके प्रशांत किशोर का विश्लेषण यह भी है कि लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जो स्ट्राइक रेट रहता है, वह विधानसभा चुनावों में नहीं रहता। अपनी बात के समर्थन में पीके 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद 2015 के दिल्ली तथा बिहार चुनाव, 2016 के बंगाल चुनाव, 2017 के गोवा, पंजाब एवं गुजरात चुनाव 2018 के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान चुनाव जिक्र किया। साथ ही, 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड व दिल्ली के चुनावों का उदाहरण भी दिया, जिनमें लोकसभा चुनावों की तुलना में भाजपा की सीटें कम हुईं। पीके का दावा है कि बंगाल में 2019 लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा को भले ही 18 लोकसभा सीटें मिलीं, जिनसे 120 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर बढ़त की बात कही जा रही है, लेकिन 2021 के बंगाल विधानसभा चुनावों में भाजपा की सीटें तेजी से घटेंगी। उनका कहना है कि लोकसभा में जनता प्रधानमंत्री और केंद्र में सरकार बनाने के लिए वोट देती है, जबकि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री और राज्य में सरकार बनाने के लिए वोट देती है।
मीडिया में दिए गए अपने साक्षात्कारों में प्रशांत किशोर ने बेबाकी से माना है कि बंगाल में ममता बनर्जी की दस साल की सरकार के खिलाफ कुछ वर्गों में नाराजगी भी है। कुछ हिस्सों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति आकर्षण भी है। भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण का भी कुछ असर है। मोदी के डबल इंजन की सरकार के नारे का भी एक सीमित असर हो सकता है। पीके कहते हैं कि इन सबके बावजूद ममता बनर्जी की जनसाधारण, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के बीच लोकप्रियता भाजपा के पक्ष के उपरोक्त कारकों पर खासी भारी है। वहीं, लोकसभा चुनावों के नतीजों से भी तृणमूल कांग्रेस ने सबक लिया और उन वर्गों तक पहुंच बनाई, जो लोकसभा चुनावों में पार्टी से दूर हो गए थे। इनमें दलितों और आदिवासियों की संख्या काफी ज्यादा है। अगर इनका तीस-चालीस फीसदी हिस्सा तृणमूल की तरफ लौटता है तो यह नुकसान भाजपा को ही तो होगा।
अब बात ममता द्वारा विपक्ष के नेताओं को लिखे उस पत्र की, जिसमें उन्होंने सबसे भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की अपील की। दरअसल, यह बंगाली प्रधानमंत्री बनने की बंगाल की जनता की आजादी के समय से ही दबी आकांक्षा को जगाने का दांव है। ऐसा ही दांव 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी ने चला था। उन्होंने गुजराती प्रधानमंत्री बनने का संदेश देकर गुजरातियों की इच्छा जगा दी थी। यह इच्छा सरदार पटेल की जगह नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही गुजरातियों के मन में दबी हुई थी। 1977 में मोरार जी भले ही प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह जेपी द्वारा नामित थे। जनता के बीच से चुनकर नहीं आए थे। अगर विधानसभा चुनाव में तृणमूल की धमाकेदार जीत हुई तो 2024 में वह विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद की संभावित और सबसे सशक्त दावेदार होंगी।
ममता के रणनीतिकार मानते हैं कि उनके इस संदेश से बंगाल में उन्हें तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाने के लिए जनता ठीक उसी तरह एकजुट हो सकती है, जैसे 2012 में मोदी के लिए गुजरात की जनता एकजुट हो गई थी। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वाराणसी में चुनौती देने की बात भी कही। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार अपनी सभाओं में ममता बनर्जी के हारने की भविष्यवाणी करके अपने समर्थकों का उत्साह बढ़ा रहे हैं। कुल मिलाकर अब यह चुनाव सीधे-सीधे ममता बनाम मोदी हो गया है और दोनों तरफ से मनोवैज्ञानिक युद्ध जारी है।