सौ दिन बाद मोदी राज में किसान आंदोलन जैसे थे
बीते एक दशक में दुनिया ने कई आंदोलन देखे। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में कहें तो दुनिया भर में आंदोलनजीवियों ने हुकूमतों के सिर में दर्द कर दिया
बीते एक दशक में दुनिया ने कई आंदोलन देखे। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में कहें तो दुनिया भर में आंदोलनजीवियों ने हुकूमतों के सिर में दर्द कर दिया। कहीं आंदोलनों के कारण सत्ता परिवर्तन हुए, कहीं राजनैतिक अस्थिरता ने जन्म लिया, कहीं सैन्य तानाशाही को सिर उठाने का मौका मिला, कहीं नौजवानों ने लोकतंत्र बचाने की बागडोर संभाली। भारत ने भी पिछले दस सालों में कुछ बड़े आंदोलनों का साक्षात्कार किया है। इनमें अन्ना हजारे के लोकपाल जैसे प्रायोजित आंदोलन भी हैं, शाहीन बाग जैसे अनूठे आंदोलन भी, जिनमें महिलाओं ने अपनी ताकत का नये सिरे से समाज और सरकार को अहसास कराया। अगर कोरोना का डर खड़ा न हुआ होता तो शाहीन बाग आंदोलन शायद चलता ही रहता।
शाहीन बाग आंदोलन से तो सरकार को कोरोना के कारण राहत मिल गई, लेकिन अब एक और अभूतपूर्व आंदोलन भारत में चल रहा है। सौ दिनों से अधिक वक्त से हजारों-लाखों किसान नए कृषि कानूनों के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए हैं। दुनिया ने इतना लंबा, इतने व्यापक जनाधार और इतने विस्तृत आयामों वाला आंदोलन शायद ही देखा हो।
सौ दिन पहले दिल्ली में हालात अलग थे। कड़कड़ाती सर्दी के दिनों में दिल्ली की सीमाओं पर किसान जुट रहे थे। इन किसानों का हर तरह से दमन करने की कोशिश सरकार ने की। लेकिन वे किसी तरह पीछे नहीं हटे। अब गर्मी की शुरुआत हो चुकी है। और किसान अब भी डटे हुए हैं। उनकी मांगें अब भी वही हैं कि सरकार तीनों कानूनों को निरस्त करे और एमएसपी पर कानूनन गारंटी दे। लेकिन सरकार की जिद भी वही है कि ये कानून किसानों के हित में है और इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा। कृषि मंत्री के हालिया बयान से भी इसकी पुष्टि हो गई, जिसमें वे कहते हैं कि इन कानूनों में किसी तरह की कमी नहीं है। जनवरी से सरकार और किसानों के बीच वार्ताओं का सिलसिला भी बंद है। हालांकि सरकार ने औपचारिक तौर पर ये नहीं कहा कि वो किसानों से आगे बात के लिए तैयार नहीं है। लेकिन जो हालात हैं, उनमें सार्थक संवाद की गुंजाइश दिख नहीं रही है।
दिल्ली की सीमाओं पर किसान अब गर्मी की तैयारियों के साथ इकठ्ठा हो रहे हैं। हालांकि उनकी संख्या में थोड़ी कमी आई है। सरकार का मित्र मीडिया इस पर खुशी-खुशी रिपोर्टिंग कर रहा है कि किसानों के हौसले पस्त हो रहे हैं। लेकिन हकीकत ये है कि अब आंदोलन का रूप बदल रहा है। किसान एक जगह धरने पर बैठने और भाषण देने की जगह कई राज्यों में किसान पंचायतें कर रहे हैं। जनजागरण का यह तरीका इस आंदोलन को नई धार देगा, जबकि सरकार के लिए ये चेतावनी है कि वह किसानों को कमजोर या नादान समझने की भूल न करे।
आंदोलन के एक नेता राकेश टिकैत ने साफ ऐलान कर दिया है कि जब तक कानून वापसी नहीं, तब तक घरवापसी नहीं। इसके साथ ही पांच चुनावी राज्यों में भाजपा के लिए चुनौती खड़ी करने की किसानों ने ठानी है। प.बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुड्डुचेरी, इन पांचों राज्यों में भाजपा सत्ता में आने के लिए सारा जोर लगा रही है। साम-दाम-दंड-भेद सारे पैंतरे आजमाए जा रहे हैं। लेकिन किसान सीधी बात करने में यकीन रखते हैं, इसलिए वे साफ ऐलान कर रहे हैं कि वे भाजपा को राजनैतिक सबक सिखाएंगे। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और दिल्ली के नगरीय निकाय चुनावों में भाजपा हार का स्वाद चख चुकी है। 10 मार्च को हरियाणा में खट्टर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी है और संयुक्त किसान मोर्चा ने सभी विधायकों से अपील की है कि वे किसान विरोधी भाजपा और जेजेपी के खिलाफ वोट डालें। प.बंगाल में भी किसानों को लामबंद करने की योजना है। तमिलनाडु और केरल के किसानों को आंदोलन से जोड़ा जा रहा है। उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनाव में भी कृषि कानूनों के विरोध में उपजे आंदोलन का असर नजर आ सकता है।
राजनीति के मर्तबान में हाथ डालकर किसानों ने उंगली टेढ़ी करने का फैसला कर लिया है। भाजपा सरकार दीवार पर लिखी इस इबारत को पढ़ने से इंकार कर दे, तो क्या किया जा सकता है। वैसे अब किसान आंदोलन को विदेशों से भी सलामी मिलने लगी है। भारत का आंतरिक मसला होने के बावजूद दूसरे देशों में इस आंदोलन पर चर्चाएं हो रही हैं। अमेरिका का प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से पहले अपने कवर पेज पर किसान आंदोलन में नेतृत्व करती महिलाओं की तस्वीर छापी, जिसमें वे मुठियां लहराकर इंकलाब का ऐलान कर रही हैं, उनके साथ छोटी बच्ची, गोद में दुधमुंहा बच्चा भी है। ये तस्वीर बताती है कि महिलाएं एक साथ कितने मोर्चों पर जूझने का हौसला रखती हैं। पत्रिका के लेख का शीर्षक है- ‘मैं भयभीत नहीं हो सकती। मुझे खरीदा नहीं जा सकता’। ‘भारत के किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाली महिलाए’। यह कवर पेज और लेख बहुत कुछ कहते हैं। लेकिन उस बहुत कुछ को सुनने के लिए जो श्रवण शक्ति होनी चाहिए, वो शायद हमारे हुक्मरानों के पास नहीं है।