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किसानों की तकलीफ समझे मोदी सरकार

36 दिनों से चल रहे किसान आंदोलन के बीच 30 दिसंबर को किसान संगठनों के प्रतिनिधि औऱ सरकार के प्रतिनिधि फिर आमने-सामने वार्ता के लिए बैठे

36 दिनों से चल रहे किसान आंदोलन के बीच 30 दिसंबर को किसान संगठनों के प्रतिनिधि औऱ सरकार के प्रतिनिधि फिर आमने-सामने वार्ता के लिए बैठे। इस बार की वार्ता के लिए किसानों ने अपना चार सूत्रीय एजेंडा पहले ही तय कर दिया था कि तीनों कृषि कानून वापस लिए जाए, एमएसपी को कानूनी रूप दिया जाए और सभी फसलों को इसमें शामिल किया जाए, पर्यावरण को लेकर जो सख्त कानून लाया गया है वो वापस हो औऱ बिजली बिल पर आए नए कानून को भी सरकार वापस ले।

पर्यावरण औऱ बिजली को लेकर बने कानूनों पर तो सरकार किसानों की बात मानने तैयार है। एमएसपी को लेकर भी सरकार की ओर से लचीला रुख दिखाया गया है। लेकिन कृषि कानून वापस लेने पर पेंच अब भी अड़ा हुआ है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर है कि सरकार कृषि कानून वापस लेने को तैयार नहीं है, अलबत्ता किसान नेताओं से सरकार ने कहा कि तीन कृषि कानूनों के बारे में किसानों की मांगों पर विचार करने के लिए एक समिति बनाई जा सकती है। अगर वार्ता का यही अंतिम नतीजा रहता है तो यह बात फिर साबित हो जाएगी कि सरकार अपने अड़ियल रवैये को छोड़ने तैयार नहीं है।

किसानों की मांगों पर विचार समिति बनाने जैसे प्रस्ताव ये बताते हैं कि सरकार समय बिताने का चालाकी भरा कदम उठा रही है, ताकि सर्द मौसम और तकलीफों के कारण महीने भर से इकठ्ठा किसानों का हौसला टूटे और वे दिल्ली की सीमाओं से हट जाएं। अगर ऐसा होता है तो लगभग निरंकुश हो चली सत्ता के लिए यह एक और जीत होगी, जबकि संघर्षों के बीच जीवन गुजार रही जनता के हिस्से एक बार फिर मायूसी हाथ आएगी। आज की वार्ता में एक फर्क ये दिखा कि किसानों के साथ लंगर से आया भोजन मंत्रियों ने भी किया। लेकिन साथ खाना खा लेने से क्या उन तकलीफों को भी साझा किया जा सकता है, जो इस देश के गरीब किसान आए दिन झेलते रहते हैं। एक महीने से भी अधिक वक्त से भरी सर्दी में दिन-रात सड़कों पर बैठना केवल विरोधी की राजनीति से प्रेरित नहीं हो सकता, न ही यह कोई शगल है।

बल्कि इस आंदोलन की सफलता में किसान अपने लिए भविष्य की उम्मीदें तलाश रहे हैं। दुनिया में यह अपनी तरह का अनूठा आंदोलन है, क्योंकि न इसमें नेतृत्व का कोई एक चेहरा है या इसमें किसी का स्वार्थ निहित है। हजारों लोगों के एक साथ इकठ्ठा होने पर भी एक अनकहा अनुशासन लागू है। जिसके तहत भारत के किसान अपनी अटूट इच्छाशक्ति, सांगठनिक कौशल, रणनीतिक क्षमता, सृजनात्मकता, संसाधनों का इंतजाम, प्रबंधन सब एक साथ दर्शा रहे हैं। दुनिया में आगे कभी इस आंदोलन पर शोध होगा, तो शोधार्थी इन तमाम बिंदुओं का अध्ययन कर भारत के किसान की योग्यता पर चमत्कृत होंगे।

केंद्र सरकार ने तो पानी की बौछारें, आंसू गैस के गोले बरसाने से लेकर राजमार्ग पर गड्ढे बनाने तक सारे हथकंडे अपना लिए थे कि कैसे भी किसानों को निरंकुश सत्ता के बनाए राजप्रसाद में प्रवेश से रोक लें। सरकार किसानों को उनकी आर्थिक हैसियत के मुताबिक उनकी समाज में स्थिति की याद दिलाना चाहती थी। लेकिन किसानों ने एकजुटता के साथ सत्ता के सिंहद्वार पर दस्तक ही नहीं दी, बल्कि ऐसा धरना दिया कि अब सरकार भी समझने लगी है कि वास्तव में इस देश में किसान क्या हैसियत रखते हैं।

हालांकि अब भी सरकार उनकी क्षमता को नजरअंदाज करने की गलती कर रही है। उनकी मांगों को मान लेना सरकार के लिए झुकना नहीं होता, बल्कि इस देश के अन्नदाता का सम्मान करना होता। क्योंकि सरकार ने उनसे पूछे बिना उनकी बेहतरी के नाम पर कानून बनाए, जबकि किसान अपना भला-बुरा किसी से भी अधिक समझते हैं। नए कानून पूंजीवादी ताकतों के लिए भारत की गरीब जनता को कुचलने का एक औऱ मौका देते, और देश के किसान केवल अपने खेत ही नहीं, समूचे देश को इस भावी संकट से बचाने के लिए अड़े हुए हैं। जिन कानूनों को सरकार किसानों की आय बढ़ाने वाला बता रही है, दरअसल उसमें कारपोरेट को खुला खेल खेलने की छूट मिल जाएगी औऱ किसान ठगे जाएंगे। इसके उदाहरण भी अब सामने आने लगे हैं।

मध्यप्रदेश में एक कॉरपोरेट कंपनी ने 22 किसानों के साथ दो करोड़ का करार किया लेकिन बाद में उनकी ओर से दिया गया चेक बाउंस हो गया। ऐसी ठगी आगे नहीं होगी, क्या इसकी गारंटी केंद्र सरकार दे सकती है। किसानों को पहले ही उन्नत बीजों और फसलों के फेर में पारंपरिक तरीकों से मुंह मोड़ने के लिए विवश किया गया। अब उनसे उनका रहा-सहा सुरक्षा चक्र भी छीनने की तैयारी हो रही है। एक बार सरकार मेज के उस तरफ आए, जहां से किसानों का नजरिया उसे समझ आए, उसके बाद कोई निर्णय ले, वही बेहतर होगा।

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